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आराधना झा श्रीवास्तव
सिंगापुर में हिंदी के प्रचार-प्रसार के कार्यों में आराधना का स्वैच्छिक योगदान सराहनीय है।
आपकी लिखी हुई संवाद-नाटिकाएँ, आलेख, कविता और समीक्षा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। छह साझा काव्य-संकलन भी प्रकाशित हो चुके हैं। आराधना अपने यूट्यूब चैनल, फ़ेसबुक पेज 'आराधना की अभिव्यक्ति' (Aradhana ki Abhivyakti) और ट्विटर खाते के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति को दर्शकों से साझा करती हैं।
Author's Collection
Total Number Of Record :8तलाश जारी है...
स्वदेस में बिहारी हूँ, परदेस में बाहरी हूँ
जाति, धर्म, परंपरा के बोझ तले दबी एक बेचारी हूँ।
रंग-रूप,नैन-नक्श, बोल-चाल, रहन-सहन
सब प्रभावित, कुछ भी मौलिक नहीं।
एक आत्मा है, पर वह भौतिक नहीं।
जो न था मेरा, जो न हो मेरा
...
गीता का सार
तू आप ही अपना शत्रु है
तू आप ही अपना मित्र,
या रख जीवन काग़ज़ कोरा
या खींच कर्म से चित्र।
तू मन में अब ये ठान ले,
है कर्म ही धर्म ये जान ले।
भ्रम का अपने संज्ञान ले,
तू माध्यम मात्र ये मान ले।
तुम साधन हो जिस कर्म के
...
माँ अमर होती है, माँ मरा नहीं करती
माँ अमर होती है,
माँ मरा नहीं करती।
माँ जीवित रखती है
पीढ़ी दर पीढ़ी
परिवार, परंपरा, प्रेम और
पारस्परिकता के उस भाव को
जो समाज को गतिशील रखता है
उससे पहिए को खींच निकालता है
परिस्थिति की दलदल से बाहर।
माँ ममता का बीजारोपण करती
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आराधना झा श्रीवास्तव के हाइकु
वृत्त में क़ैद
गोल गोल घूमती
धुरी सी माँ
सँभाले हुए
गृहस्थी गोवर्धन
कृष्ण से पिता
अहं की छौंक
बिगाड़ती ज़ायका
बेस्वाद रिश्ते
प्रवासी आत्मा
देह में तलाशती
अपना घर
खारा सा नीर
अक्सर धो देता है
...
वो राम राम कहलाते हैं
अवधपुरी से जनकपुरी तक
प्रेम की गंगा बहाते हैं
वो राम राम कहलाते हैं।
राम ही माला, राम ही मोती
मन मंदिर वही बनाते हैं।
वो राम राम कहलाते हैं। ॥1॥
कर्तव्यों के पाषाण पे घिसते
कर्म का चंदन अर्पित करते,
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यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते...
मेज़ पर जमी हुई धूल को तर्जनी ऊँगली से हटाते हुए और उसे शेष उंगलियों से रगड़कर झाड़ते हुए शर्मा जी झुंझलाए और फिर ऊँचे स्वर में कामिनी को पुकारते हुए कहा, “कामिनी..कामिनी...कहाँ हो...देखो तो मेज़ पर धूल की कितनी मोटी परत है। आज इस कमरे की सफ़ाई करना भूल गई क्या? काम ठीक से करे न करे, मगर महारानी को पगार तो समय पर ही चाहिए।”
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ख़ून बन के रगों में... | ग़ज़ल
ख़ून बन के रगों में है बहता वतन
अपनी हर साँस में है ये अपना वतन
संदली संदली सी है माटी मेरी
बन के ख़ुशबू ज़ेहन में है बसता वतन
तरबियत और मोहब्बत है पायी यहाँ
इक सुकूं माँ की गोदी सा देता वतन
गुम है गलियों में बचपन मेरा आज भी
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लाल देह लाल रंग, रंग लियो बजरंग
बानर मैं मूढ़मति, दोसर न मोर गति।
दया करो सीतापति, नयन तरसते ।।१।।
राम नाम रहे जपि, मगन मगन कपि।
मुदित हृदयँ हरि, भाव हैं बरसते ।।२।।
कृपा करो रघुबीर, हनुमत हैं अधीर।
कर जोरि राह देखि, दुख हैं पसरते।।३।।
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