भारतेंदु और द्विवेदी ने हिंदी की जड़ पाताल तक पहुँचा दी है; उसे उखाड़ने का जो दुस्साहस करेगा वह निश्चय ही भूकंपध्वस्त होगा।' - शिवपूजन सहाय।

पीपल के पत्तों पर | गीत

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 नागार्जुन | Nagarjuna

पीपल के पत्तों पर फिसल रही चाँदनी
नालियों के भीगे हुए पेट पर, पास ही
जम रही, घुल रही, पिघल रही चाँदनी
पिछवाड़े, बोतल के टुकड़ों पर---
चमक रही, दमक रही, मचल रही चाँदनी
दूर उधर, बुर्ज़ी पर उछल रही चाँदनी।

आँगन में, दूबों पर गिर पड़ी--
अब मगर, किस कदर, सँभल रही चाँदनी
वो देखो, सामने--
पीपल के पत्तों पर फिसल रही चाँदनी।

- नागार्जुन
[श्रेष्ठ हिन्दी गीत संचयन]

 

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