उर्दू जबान ब्रजभाषा से निकली है। - मुहम्मद हुसैन 'आजाद'।

दो ग़ज़लें  (काव्य)

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Author: अंकित

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं​;​
रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं​;​
​​
​​पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है​;​
अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं​;​​
​​
​​वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से​;​
किसको मालूम कहाँ के हैं, किधर के हम हैं​;​
​​
​​चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब​;​
सोचते रहते हैं किस राहग़ुज़र के हम हैं​;​।

- अंकित "आकि"
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ऐसे चुप हैं​ कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे​;​
तेरा मिलना भी जुदाई की घड़ी हो जैसे​;​​​
​​
​​अपने ही साये से हर कदम लरज़ जाता हूँ​;​
रास्ते में कोई दीवार खड़ी हो जैसे​;​
​​
​​कितने नादाँ हैं तेरे भूलने वाले कि तुझे​;​
याद करने के लिए उम्र पड़ी हो जैसे​;​
​​
मंज़िलें दूर भी हैं, मंज़िलें नज़दीक भी हैं​;​
अपने ही पाँवों में ज़ंजीर पड़ी हो जैसे​;​
​​
​​आज दिल खोल के रोए हैं तो यों खुश हैं 'आकि'​;
चंद लमहों की ये राहत भी बड़ी हो जैसे।

- अंकित "आकि"
  ई-मेल: [email protected]

 

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