जो साहित्य केवल स्वप्नलोक की ओर ले जाये, वास्तविक जीवन को उपकृत करने में असमर्थ हो, वह नितांत महत्वहीन है। - (डॉ.) काशीप्रसाद जायसवाल।
हर बार | सुशांत सुप्रिय की कविता (काव्य)    Print  
Author:सुशांत सुप्रिय
 

हर बार
अपनी तड़पती छाया को
अकेला छोड़ कर
लौट आता हूँ मैं
जहाँ झूठ है , फ़रेब है , बेईमानी है , धोखा है --
हर बार अपने अस्तित्व को खींच कर
ले आता हूँ दर्द के इस पार
जैसे-तैसे एक नई शुरुआत करने

कुछ नए पल चुरा कर
फिर से जीने की कोशिश में
हर बार ढहता हूँ , बिखरता हूँ

किंतु हर हत्या के बाद
 वहीं से जी उठता हूँ
जहाँ से मारा गया था
जहाँ से तोड़ा गया था
वहीं से घास की नई पत्ती-सा
 फिर से उग आता हूँ

शिकार किए जाने के बाद भी
हर बार एक नई चिड़िया बन जाता हूँ
एक नया आकाश नापने के लिए ...


- सुशांत सुप्रिय
 मार्फ़त श्री एच.बी. सिन्हा
 5174 , श्यामलाल बिल्डिंग ,
 बसंत रोड,( निकट पहाड़गंज ) ,
 नई दिल्ली - 110055
मो: 9868511282 / 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com

Back
 
 
Post Comment
 
  Captcha
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश