मजहब को यह मौका न मिलना चाहिए कि वह हमारे साहित्यिक, सामाजिक, सभी क्षेत्रों में टाँग अड़ाए। - राहुल सांकृत्यायन।
आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख | ग़ज़ल  (काव्य)    Print  
Author:दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar
 

आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख
घर अँधेरा देख तू, आकाश के तारे न देख।

एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ
आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख।

अब यक़ीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह
यह हक़ीक़त देख, लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख।

वे सहारे भी नहीं अब, जंग लड़नी है तुझे
कट चुके जो हाथ, उन हाथों में तलवारें न देख।

दिल को बहला ले, इजाज़त है, मगर इतना न उड़
रोज़ सपने देख, लेकिन इस क़दर प्यारे न देख।

ये धुँधलका है नज़र का, तू महज़ मायूस है
रोग़नों को देख, दीवारों में दीवारें न देख।

राख, कितनी राख है, चारों तरफ़ बिखरी हुई
राख में चिंगारियाँ ही देख, अँगारे न देख।

- दुष्यंत कुमार

 

Back
 
 
Post Comment
 
  Captcha
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश