वही भाषा जीवित और जाग्रत रह सकती है जो जनता का ठीक-ठीक प्रतिनिधित्व कर सके। - पीर मुहम्मद मूनिस।

 
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साजन! होली आई है! - फणीश्वरनाथ रेणु | Phanishwar Nath 'Renu'

साजन! होली आई है!
सुख से हँसना
जी भर गाना
मस्ती से मन को बहलाना
पर्व हो गया आज-
साजन ! होली आई है!
हँसाने हमको आई है!

साजन! होली आई है!
इसी बहाने
क्षण भर गा लें
दुखमय जीवन को बहला लें
ले मस्ती की आग-
साजन! होली आई है!
जलाने जग को आई है!

साजन! होली आई है!
रंग उड़ाती
मधु बरसाती
कण-कण में यौवन बिखराती,
ऋतु वसंत का राज-
लेकर होली आई है!
जिलाने हमको आई है!

साजन ! होली आई है!
खूनी और बर्बर
लड़कर-मरकर-
मधकर नर-शोणित का सागर
पा न सका है आज-
सुधा वह हमने पाई है !
साजन! होली आई है!

साजन ! होली आई है !
यौवन की जय !
जीवन की लय!
गूँज रहा है मोहक मधुमय
उड़ते रंग-गुलाल
मस्ती जग में छाई है
साजन! होली आई है!

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एक भी आँसू न कर बेकार - रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi

एक भी आँसू न कर बेकार -
जाने कब समंदर मांगने आ जाए!
पास प्यासे के कुआँ आता नहीं है,
यह कहावत है, अमरवाणी नहीं है,
और जिस के पास देने को न कुछ भी
एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है,
कर स्वयं हर गीत का श्रृंगार
जाने देवता को कौनसा भा जाए!
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ऋतु फागुन नियरानी हो - कबीरदास | Kabirdas

ऋतु फागुन नियरानी हो,
कोई पिया से मिलावे ।
सोई सुदंर जाकों पिया को ध्यान है, 
सोई पिया की मनमानी,
खेलत फाग अगं नहिं मोड़े,
सतगुरु से लिपटानी ।
इक इक सखियाँ खेल घर पहुँची,
इक इक कुल अरुझानी ।
इक इक नाम बिना बहकानी,
हो रही ऐंचातानी ।।

पिय को रूप कहाँ लगि बरनौं,
रूपहि माहिं समानी ।
जौ रँगे रँगे सकल छवि छाके,
तन- मन सबहि भुलानी।
यों मत जाने यहि रे फाग है,
यह कछु अकथ- कहानी ।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो,
यह गति विरलै जानी ।।

             - कबीर
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मुक्तिबोध की कविता - गजानन माधव मुक्तिबोध | Gajanan Madhav Muktibodh

मैं बना उन्माद री सखि, तू तरल अवसाद
प्रेम - पारावार पीड़ा, तू सुनहली याद
तैल तू तो दीप मै हूँ, सजग मेरे प्राण।
रजनि में जीवन-चिता औ' प्रात मे निर्वाण
शुष्क तिनका तू बनी तो पास ही मैं धूल
आम्र में यदि कोकिला तो पास ही मैं हूल
फल-सा यदि मैं बनूं तो शूल-सी तू पास
विँधुर जीवन के शयन को तू मधुर आवास
सजल मेरे प्राण है री, सजग मेरे प्राण
तू बनी प्राण! मै तो आलि चिर-म्रियमाण।
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मैं दिल्ली हूँ | चार - रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi

क्यों नाम पड़ा मेरा 'दिल्ली', यह तो कुछ याद न आता है ।
पर बचपन से ही दिल्ली, कहकर मझे पुकारा जाता है ॥
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रंग की वो फुहार दे होली - गोविंद कुमार

रंग की वो फुहार दे होली
सबको खुशियाँ अपार दे होली
द्वेष नफरत हो दिल से छूमन्तर
ऐसा आपस में प्यार दे होली
नफरत की दीवार गिरा दो होली में
उल्फत की रसधार बहा दो होली में
झंकृत कर दे जो सबके ही तन मन को
सरगम की वो तार बजा दो होली में
मन में जो भी मैल बसाये बैठे हैं
उनको अबकी बार जला दो होली में
रंगों की बौछार रंगे केवल तन को
मन को भी इसबार भिगा दो होली में
प्यालों से तो बहुत पिलायी है अब तक
आँखों से इकबार पिला दो होली में
भाईचारा शान्ति अमन हो हर दिल में
ऐसा ये संसार बना दो होली में
बटवारे की जो है खड़ी बुनियादों पर
ऐसी हर दीवार गिरा दो होली में
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हमारी सभ्यता - मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt

शैशव-दशा में देश प्राय: जिस समय सब व्याप्त थे,
निःशेष विषयों में तभी हम प्रौढ़ता को प्राप्त थे ।
संसार को पहले हमीं ने ज्ञान-भिक्षा दान की,
आचार की, व्यवहार की, व्यापार की, विज्ञान की ।। ४५ ।।
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राजनैतिक होली - डॉ एम.एल.गुप्ता आदित्य


चुनावों के चटक रंगों सा, छाया हुआ खुमार ।
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रंगो के त्यौहार में तुमने - राहुल देव

रंगो के त्यौहार में तुमने क्यों पिचकारी उठाई है?
लाल रंग ने कितने लालों को मौत की नींद सुलाई है।
टूट गयी लाल चूड़ियाँ,
लाली होंठो से छूट गयी।
मंगलसूत्र के कितने धागों की ये माला टूट गयी।
होली तो जल गयी अकेली,
तुम क्यों संग संग जलते हो।
होली के बलिदान को तुम,
कीचड में क्यों मलते हो?
मदिरा पीकर भांग घोटकर कैसा तांडव करते हो?
होलिका के बलिदान को बेशर्मी से छलते हो।
हर साल हुड़दंग हुआ करता है,
नहीं त्यौहार रहा अब ये।
कृष्ण राधा की लीला को भी,
देश के वासी भूल गए।
दिलों का नहीं मेल भी होता,
ना बच्चों का खेल रहा।
इस खून की होली को है,
देखो मानव झेल रहा।
माता बहने कन्या गोरी,
नहीं रंग में होती है।
अब होली के दिन को देखो,
चुपके चुपके रोती हैं।
गाँव गाँव और शहर शहर में,
अजब ढोंग ये होता है,
कहने को तो होली होती,
पर रंग लहू का चढ़ता है।
खेल सको तो ऐसे खेलो,
अबके तुम ऐसी होली।
हर दिल में हो प्यार का सागर,
हर कोई हो हमजोली।
रंग प्यार के खूब चढ़ाओ,
खूब चलाओ पिचकारी,
और भिगो दो बस प्यार में,
तुम अब ये दुनिया सारी।

- राहुल देव
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सूर के पद | Sur Ke Pad - सूरदास | Surdas

सूरदास के पदों का संकलन - इस पृष्ठ के अंतर्गत सूर के पदों का संकलन यहाँ उपलब्ध करवाया जा रहा है। यदि आपके पास सूरदास से संबंधित सामग्री हैं तो कृपया 'भारत-दर्शन' के साथ साझा करें।
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तुझसंग रंग लगाऊँ कैसे -  प्रशांत कुमार पार्थ

चढी है प्रीत की ऐसी लत
छूटत नाहीं
दूजा रंग लगाऊँ कैसे!
गठरी भरी प्रेम की
रंग है मन के कोने कोने बसा
दिखत नही हो कान्हा मोहे
तुझसंग रंग लगाऊँ कैसे!
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बरस-बरस पर आती होली - गोपाल सिंह नेपाली | Gopal Singh Nepali

बरस-बरस पर आती होली,
रंगों का त्यौहार अनूठा
चुनरी इधर, उधर पिचकारी,
गाल-भाल पर कुमकुम फूटा
लाल-लाल बन जाते काले,
गोरी सूरत पीली-नीली,
मेरा देश बड़ा गर्वीला,
रीति-रसम-ऋतु रंग-रगीली,
नीले नभ पर बादल काले,
हरियाली में सरसों पीली !
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आओ होली खेलें संग - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

कही गुब्बारे सिर पर फूटे
पिचकारी से रंग है छूटे
हवा में उड़ते रंग
कहीं पर घोट रहे सब भंग!
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खेलो रंग से | कविता - डॉ. श्याम सखा श्याम

खेलो रंग से
मगर ढंग से
जीयो सखा उमंग से
मौज से, तरंग से
गाओ गीत अहंग से
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द्रोणाचार्य | कविता - डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी

तुम्हीं ने-
‘अर्जुन' को सर्वश्रेष्ठ ‘धनुर्धर'
की संज्ञा दी थी
और
‘एकलब्य' का अंगूठा मांगकर
अपनी जीत
सुनिश्चित किया था।
तुम-
आज के परिवेश में भी
ठीक उसी तरह हो
जैसे-
द्वापर में ‘महाभारत' के ‘द्रोण'।।
यह भी सुनिश्चित है कि-
जीत तुम्हारी ही होगी
भले ही तुम
हारने वाले के पक्षधर हो।
तुम-
कलयुगी मानव हो
फिर भी-
सतयुगी घोषणाएँ करते हो।।
नित्य के चीत्कार एवं चिग्घाड़ों को
नहीं सुनते हो।
तुम-
सब कुछ जानते हुए भी
अनजान बने रहते हो।
‘अश्वत्थामा' मारा गया
यह तुम लोगों को
समझा देते हो।
इस कूटनीति के सहारे तुम
जीत जाते हो
वही जीत
जिसके लिए तुमने
‘कौरवों' का साथ
देने की स्वीकृति दी।।
तुम-
इस हार को
अस्वीकार भी कर सकते हो,
लेकिन जीतना
तुम्हारी नियति बन चुकी है,
इसलिए-
हर बार किसी न किसी
कर्ण का कवच
‘कुरूक्षेत्र' में
तुम्हारी रक्षा का प्रमाण
बन जाता है।
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बलजीत सिंह की दो कविताएं  - बलजीत सिंह

बर्फ का पसीना

सर्द
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वसन्त आया - सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'

सखि, वसन्त आया ।
भरा हर्ष वन के मन,
नवोत्कर्ष छाया।

किसलय-वसना नव-वय-लतिका
मिली मधुर प्रिय-उर तरु-पतिका,
मधुप-वृन्द बन्दी-
पिक-स्वर नभ सरसाया।

लता-मुकुल-हार-गन्ध-भार भर
बही पवन बन्द मन्द मन्दतर,
जागी नयनों में वन-
यौवन की माया।

आवृत सरसी-उर-सरसिज उठे,
केशर के केश कली के छुटे,
स्वर्ण-शस्य-अञ्चल
पृथ्वी का लहराया।

...

ख़ून की होली जो खेली  - सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'

रँग गये जैसे पलाश;
कुसुम किंशुक के, सुहाए,
कोकनद के पाए प्राण,
ख़ून की होली जो खेली ।
...

जो पुल बनाएँगें - अज्ञेय | Ajneya

जो पुल बनाएँगें
वे अनिवार्यत:
पीछे रह जाएँगे
सेनाएँ हो जाएगी पार
मारे जाएँगे रावण
जयी होंगें राम ,
जो निर्माता रहे
इतिहास में
बंदर कहलाएँगे
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आया मधुऋतु का त्योहार - आनन्द विश्वास (Anand Vishvas)

खेत-खेत में सरसों झूमे, सर-सर बहे बयार,
मस्त पवन के संग-संग आया मधुऋतु का त्योहार।
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होली आई - होली आई - हर्ष कुमार

बहुत नाज़ था उसको खुद पर, नहीं आंच उसको आयेगी
नहीं जोर कुछ चला था उसका, जली होलिका होली आई

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होली की रात | Jaishankar Prasad Holi Night Poetry - जयशंकर प्रसाद | Jaishankar Prasad

बरसते हो तारों के फूल
छिपे तुम नील पटी में कौन?
उड़ रही है सौरभ की धूल
कोकिला कैसे रहती मीन।
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परिंदे की बेज़ुबानी - डॉ शम्भुनाथ तिवारी

बड़ी ग़मनाक दिल छूती परिंदे की कहानी है!
...

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