हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।

मैं पावन हूँ अपने आंसू के नीर से | गीत 

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 गोपाल सिंह नेपाली | Gopal Singh Nepali

तुम पार तरो गंगा-यमुना के तीर से 
मैं पावन हूँ अपने आंसू के नीर से

 (1) 
हर बार पराई पीर पर, रो देना मेरा धर्म है 
जब अपना ही घर उजड़े तो, रो लेना मेरा कर्म है 
ये आँसू सुख- 
दुख के साथी 
ये कच्चे मोती मिले मुझे तकदीर से 
मैं पावन हूं अपने आँसू के नीर से 

(2)
मेरा दुख मेरी जिंदगी, जग का दुख मेरी सम्पदा 
ठोकर हल्की खाकर छलकी, मेरे नयनों की नर्मदा
जो पाप कहीं 
धुल सका नहीं 
वह पाप धुला इस की दूधिया लकीर से 
मैं पावन हूं अपने आंसू के नीर से

(3)
सूर्योदय मेरा है यहीं, दिन मेरा ढलता है यहीं 
जो चाँद सितारों का साथी, वह दीपक जलता है यहीं
इस में अम्बर 
सागर दोनों 
ये नयन बने सागर ग़म की तस्वीर से 
मैं पावन हूँ अपने आँसू के नीर से 

(4)
इस जल में डूबी प्रार्थना, घट-घट में राम पुकारती 
है मन्दिर की मुहताज नहीं, यह नयन-दीप की आरती
यह जहाँ चली 
भगवान वहीं 
भगवान बंधे इस पानी की जंजीर से 
मैं पावन हूँ, अपने आंसू के नीर से

(5) 
जब विपदा की झनकार पर, पलकों में तारे कांपते 
इन नन्हीं बुन्दियों के दलबल, करुणा की सीमा मापते 
कोई दुख समझे 
ना समझे 
ये बुंदियाँ उलझै जीवन-भर बे पीर से 
मै पावन हूं अपने आंसू के नीर से

(6)
आशा के चिकने पात पर, रवि किरन चमकती रह गई 
सागर की चंचल लहरों पर, चांदनी लचकती रह गई 
तो प्यासे की 
हम दर्दी में 
यह गंगा उछली पलकों की प्राचीर से 
मैं पावन हूँ अपने आंसू के नीर से 

(7)
ये मोती बरसें प्यार पर, ये कलियाँ अर्थी पर चढ़ें  
बेदर्द नसीबा से लड़कर, ये तारों से आगे बढ़े 
ये शत्रु हठीले 
जन्मों के, 
रुकती न डगर इन की, नंगी शमशीर से 
मैं पावन हूं अपने आंसू के नीर से 

8) 
हर मस्त नजर बदनाम है, नादान उमर बदनाम है 
चलने वाले निर्दोष यहां बेकार डगर बदनाम है 
बदनामी से 
ये क्यों बचते 
इनका नाता काजल की कृष्ण-कुटीर से 
मैं पावन हूं अपने आंसू के नीर से

- गोपालसिंह नेपाली

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