माँ हम विदा हो जाते हैं, हम विजय केतु फहराने आज तेरी बलिवेदी पर चढ़कर माँ निज शीश कटाने आज।
मलिन वेष ये आँसू कैसे, कंपित होता है क्यों गात? वीर प्रसूति क्यों रोती है, जब लग खंग हमारे हाथ।
धरा शीघ्र ही धसक जाएगी, टूट जाएँगे न झुके तार विश्व कांपता रह जाएगा, होगी माँ जब रण हुंकार।
नृत्य करेगी रण प्रांगण में, फिर-फिर खंग हमारी आज अरि शिर गिराकर यही कहेंगे, भारत भूमि तुम्हारी आज।
अभी शमशीर कातिल ने, न ली थी अपने हाथों में। हजारों सिर पुकार उठे, कहो दरकार कितने हैं॥
- चंद्रशेखर आज़ाद
पुन: प्रकाशन [भारत-दर्शन, 2001]
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