हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।
प्रवासी भारतीयों की पारंपरिक भाषाओं पर सम्मेलन (विविध)  Click to print this content  
Author:भारत-दर्शन समाचार

29-31 अक्तूबर, 2015 को कैरिबियन फ़्रैंच द्वीप ग्वाडालूप में प्रवासी भारतीयों की पारंपरिक भाषाओं के पीढ़ी-दर-पीढ़ी संरक्षण और प्रसारण विषय पर संसार के विभिन्न भागों से आए विद्वज्जन एक सम्मेलन के अंतर्गत अपने आलेख प्रस्तुत करेंगे और तद्विषयक गहन चर्चा में भाग लेंगे।

इस सम्मेलन में  यूनिवर्सिटी ऑफ़ पेन्सिल्वेनिया के डा सुरेन्द्र गंभीर 'विभिन्न देशों में हिन्दी की स्थिति पर आधारित एक आलेख प्रस्तुत करेंगे। डा सुरेन्द्र गंभीर के आलेख का विषय एक ऐसा प्रतिमान है जिसके आधार पर कृशकाय भाषाओं में पुनः प्राणप्रतिष्ठा की जा सकती है। उनका कहना है कि प्रौद्योगिकी और भूमण्डलीकरण के कारण आज परिस्थितियां बहुत अलग हैं और द्विभाषिकता के लाभों की ओर शिक्षित समाज आकर्षित हो रहा है। अमेरिका और कैनाडा में द्विभाषिकता सरकारी तंत्र की नीतियों का हिस्सा बन चुकी है और सरकारी नीतियों से समर्थित होकर द्विभाषिकता को अगली पीढ़ियों के लिए विद्यालयों से विश्वविद्यालयों तक के पाठ्यक्रमों का भाग बनाने की प्रक्रिया आरंभ हो चुकी है। अमेरिका में विश्व की कुछ महत्वपूर्ण भाषाओं का इस नीति के लिए चयन किया गया है और हिन्दी उन चयनित भाषाओं की सूची में सम्मिलित है।

भारत के संदर्भ में भी निर्बल होती भारतीय भाषाओं को सबल बनाने की आवश्यकता है। वहां काफ़ी सीमा तक तो पानी सर के ऊपर से निकल चुका है परंतु अभी भी स्थिति को संभाला जा सकता है। परंतु उसके लिए सरकारी स्तर से लेकर व्यक्तिगत स्तर तक की कटिबद्धता अनिवार्य है। अन्यथा भारतीय भाषाओं की उपेक्षा भारत की प्रगति में बाधक बनेगी और भारत एक मध्यम-स्तरीय देश बनकर रह जाएगा।

आशा है कि हिन्दी के वैश्विक मंचों पर भारत के बाहर और भारत में जन-जीवन के साथ सांस्कृतिक और संप्रेषणात्मक संबंध रखने वाली पारंपरिक भाषाओं को सबल और संपुष्ट करने के विषय पर सार्थक चर्चा हो सकेगी।


 

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