समाज और राष्ट्र की भावनाओं को परिमार्जित करने वाला साहित्य ही सच्चा साहित्य है। - जनार्दनप्रसाद झा 'द्विज'।
 

अतिथि

 (कथा-कहानी) 
 
रचनाकार:

 विष्णु प्रभाकर | Vishnu Prabhakar

एक शाम जब ब्रह्मानंद घर लौट रहे थे तो उनकी भेंट एक ऐसे व्यक्ति से हुई, जो बुरी तरह घबरा रहा था। उसके पास कुछ नहीं था और वह धर्मशाला का पता पूछ रहा था। उन्होंने उसे पास की एक धर्मशाला का पता दिया, लेकिन इस पर उसने पूछा, "क्या मैं वहाँ बिना बिस्तर के रह सकूँगा?"

"क्या मतलब?" ब्रह्मनंद ने अचकचाकर कहा ।

"बात यह हैं, " उस व्यक्ति ने जवाब दिया, "मैं घर से बिस्तर लेकर नहीं चला था; परंतु धर्मशालावाले उसी को ठहरने देते हैं, जिसके पास बिस्तर होता है।"

"क्यों?"

"वे कहते हैं कि जिनके पास बिस्तर नहीं है, वे या तो चोर हैं या बम- पार्टीवाले क्रांतिकारी।"

यह सुनकर ब्रह्मानंद को हँसी आ गई, पर उन भाई की समस्या काफी उलझी हुई थी। वह सड़क पर पड़े रहें, इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं था; पर ऐसे लोगों को पुलिस तंग करती है। तब क्या करें? वे इसी असमंजस में थे कि ब्रह्मानंद ने उनसे कहा, "आइए!"

"कहाँ?'

"मेरे साथ।"

"आपके साथ कहाँ?"

"मेरे घर मैं यहीं पास में रहता हूँ। मेरे पास ठहरने में तुम्हें कोई दिक्कत नहीं होगी।"

वह व्यक्ति पहले तो कुछ समझा नहीं और जब समझा तो अचरज से काँप उठा। उससे बोला नहीं गया; पर अंधा क्या चाहे — दो आँखें, वह उन्हीं के पास ठहर गया। उसे दो-तीन दिन का काम था ।

अगले दिन अचानक ब्रह्मांनद को एक तार मिला जिसे पंजाब से उनके छोटे भाई ने भेजा था । लिखा था - " माँ सख्त बीमार हैं, एकदम आओ।" उन्होंने जल्दी जल्दी सामान बटोरा गाड़ी जाने में केवल एक घंटा शेष था । उन्होंने उसी गाड़ी से जाने का निश्चय किया, पर वह अतिथि उस समय घर पर नहीं थे और शीघ्र लौटने की कोई आशा भी नहीं थी । तब उन्होंने चुपचाप एक पत्र लिखा, जिसमें तार की चर्चा करके बताया था कि वह आराम से कमरे में रहें और जाते समय ताली पड़ोसी को सौंप जाएँ।

फिर ताला लगा, ताली को चिट्ठी में लपेट उसी स्थान पर रख दिया, जहाँ पर रखने का नियम था। उन्हें आशा थी कि वह दो-तीन दिन में लौट आएँगे, परंतु जब लौटे तो पंद्रह दिन बीत चुके थे। उन्होंने सदा की भाँति पड़ोसी से ताली माँगकर मकान खोला, फिर अपने काम में लग गए।

उनके मस्तिष्क में यह बात बिलकुल ही नहीं आई कि अपने पीछे वह मकान में एक अजनबी अतिथि को छोड़ गए थे। वह अतिथि भी वास्तव में अतिथि था। उसने ब्रह्मानंद से जो कुछ पाया था, उसे वह उसी सुरक्षित अवस्था में वहीं छोड़ गया था।

वह 'जो कुछ' था--"विश्वास"!

-विष्णु प्रभाकर

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