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कथा-कहानी |
अंतरजाल पर हिंदी कहानियां व हिंदी साहित्य निशुल्क पढ़ें। कथा-कहानी के अंतर्गत यहां आप हिंदी कहानियां, कथाएं, लोक-कथाएं व लघु-कथाएं पढ़ पाएंगे। पढ़िए मुंशी प्रेमचंद,रबीन्द्रनाथ टैगोर, भीष्म साहनी, मोहन राकेश, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, फणीश्वरनाथ रेणु, सुदर्शन, कमलेश्वर, विष्णु प्रभाकर, कृष्णा सोबती, यशपाल, अज्ञेय, निराला, महादेवी वर्मा व लियो टोल्स्टोय की कहानियां। |
Articles Under this Category |
कलश का उत्तर - भारत-दर्शन संकलन |
पानी से भरा कलश सजा हुआ था। उस पर चित्रकारी भी की गई थी। कलश पर एक कटोरी रखी थी, जिससे उसे ढक कर रखा गया था। कटोरी ने कलश से कहा-"भाई कलश। तुम बड़े उदार हो। तुम सदा दूसरों को देते ही रहते हो। कोई भी खाली बरतन आए, तुम उससे अपना जल उड़ेल देते हो। किसी को खाली नहीं जाने देते।" |
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चोर और पवहारी बाबा - स्वामी विवेकानंद |
प्रसिद्ध योगी पवहारी बाबा गंगातट पर निर्जन वास करते थे। एक रात बाबाजी की कुटिया में एक चोर घुसा। कुछ बरतन, कपड़े और एक कंबल ही बाबा की कुल जमा पूंजी थी। चोर बरतनों को बांधकर जल्दी से निकल जाने का प्रयास करने लगा। जल्दबाजी में वह कुटिया की दीवार से टकरा गया और घबराहट में भागते समय चोरी का सामान भी गिर गया। |
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ज्ञान-धारा | बोधकथा - भारत-दर्शन संकलन |
एक बार भगवान बुद्ध से उनके शिष्य आनंद ने पूछा- ‘भगवन्! जब आप प्रवचन देते हैं तो सुनने वाले नीचे बैठते हैं और आप ऊंचे आसन पर बैठते हैं, ऐसा क्यों?’ |
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प्रभाव - नरेन्द्र कोहली |
एक व्यक्ति बहुत श्रद्धापूर्वक नित्यप्रति भगवद्गीता पढ़ा करता था। उसके पोते ने अपने दादा के आचरण को देख कर निर्णय किया कि वह भी प्रतिदिन गीता पढ़ेगा। काफी समय तक धैर्यपूर्वक गीता पढ़ने के पश्चात् एक दिन वह एक शिकायत लेकर अपने दादा के पास आया। बोला, ''मैं प्रतिदिन गीता पढ़ता हूं; किंतु न तो मुझे कुछ समझ में आता है और न ही उसमें से मुझे कुछ स्मरण रहता है। तो फिर गीता पढ़ने का क्या लाभ ?'' |
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महामूर्ख | लघु कथा - अलोक मरावी |
"अरे तिवारी जी, आपको पता है ...वो जो विश्वकर्मा जी है न ....वो जो P.W.D में काम करते हैं... " शर्मा जी बोले। |
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खोट | लोक-कथा - भारत-दर्शन संकलन |
एक मार्ग चलती हुई बुढ़िया जब काफ़ी थक चुकी तो पास से जाते हुए एक घुड़सवार से दीनतापूर्वक बोली-'भैया, मेरी यह गठरी अपने घोड़े पर रख ले और जो उस चौराहे पर प्याऊ मिले, वहाँ दे देना। तेरा बेटा जीता रहे, मैं बहुत थक गई हूँ, मुझसे अब यह उठाई नहीं जाती ।' |
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मिट्टी और कुंभकार - नरेन्द्र ललवाणी | लघुकथा |
बार-बार पैरों तले कुचले जाने के कारण मिट्टी अपने भाग्य पर रो पड़ी । अहो! मैं कैसी बदनसीबी हूँ कि सभी लोग मेरा अपमान करते हैं । कोई भी मुझे सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता जबकि मेरे ही भीतर से प्रस्फुटित होने वाले फूल का कितना सम्मान है । फूलों की माना पिरोकर गले में पहनी जाती है । भक्त लोग अपने उपास्य के चरणों में चढ़ाते हैं । वनिताएं अपने बालों में गूंथ कर गर्व का अनुभव करती हैं । क्या ही अच्छा हो कि मैं भी लोगों के मस्तिष्क पर चढ़ जाऊं! |
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बोलने वाली रजाई | लोक-कथा - श्रीकृष्ण |
[ठण्ड में ठिठुरते दो बच्चों की एक दुःख भरी मर्मस्पर्शी अविस्मरणीय जापानी लोक-कथा] |
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घमंड कब तक - अयोध्याप्रसाद गोयलीय |
"नानी, यह ऊँट इतना उछल-कूद क्यों रहा है?" |
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कलम और कागज़ - मुनिज्ञान |
अपने ऊपर आती हुई कलम को देखते ही कागज़ ने कहा--जब भी तुम आती हो, मुझे सिर से लेकर पैर तक काले रंग से रंग देती हो। मेरी सारी शुक्लता और स्वच्छता को विनष्ट कर देती हो । |
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पराया सुख - यशपाल | Yashpal |
सूर्योदय हो गया है या नहीं, जान नहीं पड़ता था। आकाश घने बादलों से घिरा था। पानी के बोझ से भारी ठंडी हवा कुछ तेजी से बह रही थी। पठानकोट स्टेशन के मुसाफ़िर खाने में बैठे हुऐ पहाड़ जानेवाले यात्री, कपड़ों में लिपट लिपट कर लारियों के चलने के समय की प्रतीक्षा कर रहे थे। लारियों के ड्राइवर मुसाफ़िरों की तलाश में इधर-उधर दौड़ रहे थे। जितनी चिन्ता मुसाफ़िरों को आगे जाने की थी उससे कहीं अधिक चिन्ता थी इन ड्राइवरों को मुसाफ़िरों को उनके घर पहुँचा देने की। |
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तीन बच्चे - सुभद्रा कुमारी |
मेरे बच्चों में से प्रत्येक ने अपने लिए एक-एक बगीचा लगाया था। बगीचा क्या, 'फूलों की छोटी-छोटी क्यारियाँ थीं। एक दिन सवेरे हम लोगों ने देखा कि उन क्यारियों में फूल खिल आए हैं। |
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तमाशा - स्वदेश दीपक |
वह अधेड़ उम्र का आदमी बड़ी देर से किसी साएदार पेड़ की तलाश कर रहा है। उसका आठ साल का लड़का बड़े थके-थके कदमों से बाप के पीछे चल रहा है। उसके गले में एक छोटा-सा ढोल पड़ा हुआ है जिसे वह थोड़ी-थोड़ी देर के बाद हाथों से पीट देता है। जब भी कोई पेड़ नजदीक आता है वह बड़ी तरसती निगाहों से उसे देखता है - शायद बापू इसके नीचे ठहर जाए। लेकिन नहीं, पेड़ बड़ा है तो साएदार नहीं। अगर साएदार है तो छोटा है। मजमा लगाने के लायक नहीं। बाप ने सिर पर बड़ी-सी पगड़ी बाँध रखी है। इसके लटक रहे सिरे से वह बार-बार मुँह और गर्दन को पोंछ लेता है। इनके पीछे-पीछे लड़कों का एक झुंड चला आ रहा है। बाप बार-बार पीछे मुड़ कर पीछा करते लड़कों को देखता है और खुश होता है। खेल तमाशा देखनेवाले यह छोटे-छोटे दर्शक ही भीड़ को बढ़ाने में मदद देते हैं। |
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हूक - चन्द्रगुप्त विद्यालंकार |
(एक) |
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