नागरी प्रचार देश उन्नति का द्वार है। - गोपाललाल खत्री।
काव्य
जब ह्रदय अहं की भावना का परित्याग करके विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, तब वह मुक्त हृदय हो जाता है। हृदय की इस मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है उसे काव्य कहते हैं। कविता मनुष्य को स्वार्थ सम्बन्धों के संकुचित घेरे से ऊपर उठाती है और शेष सृष्टि से रागात्मक संबंध जोड़ने में सहायक होती है। काव्य की अनेक परिभाषाएं दी गई हैं। ये परिभाषाएं आधुनिक हिंदी काव्य के लिए भी सही सिद्ध होती हैं। काव्य सिद्ध चित्त को अलौकिक आनंदानुभूति कराता है तो हृदय के तार झंकृत हो उठते हैं। काव्य में सत्यं शिवं सुंदरम् की भावना भी निहित होती है। जिस काव्य में यह सब कुछ पाया जाता है वह उत्तम काव्य माना जाता है।

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चाहता हूँ देश की.... - रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi

मन समर्पित, तन समर्पित
और यह जीवन समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं
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मौन ओढ़े हैं सभी | राजगोपाल सिंह का गीत - राजगोपाल सिंह

मौन ओढ़े हैं सभी तैयारियाँ होंगी ज़रूर
राख के नीचे दबी चिंगारियाँ होंगी ज़रूर
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हमने अपने हाथों में - उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans

हमने अपने हाथों में जब धनुष सँभाला है,
बाँध कर के सागर को रास्ता निकाला है।
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यूँ तो मिलना-जुलना  - प्रगीत कुँअर | ऑस्ट्रेलिया

यूँ तो मिलना-जुलना चलता रहता है
मिलकर उनका जाना खलता रहता है
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बदलीं जो उनकी आँखें - सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'

बदलीं जो उनकी आँखें, इरादा बदल गया ।
गुल जैसे चमचमाया कि बुलबुल मसल गया ।

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कुछ क्षणिकाएँ - डॉ रमेश पोखरियाल निशंक

रिश्ते
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जाग तुझको दूर जाना - महादेवी वर्मा | Mahadevi Verma

चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना।
जाग तुझको दूर जाना!
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पीर  - डॉ सुधेश

हड्डियों में बस गई है पीर।
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जवानी के क्षण में | गीत - गोपाल सिंह नेपाली | Gopal Singh Nepali

कुछ ऐसा खेल रचो साथी !
कुछ जीने का आनन्द मिले
कुछ मरने का आनन्द मिले
दुनिया के सूने ऑगन में कुछ ऐसा खेल रचो साथी !
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बेधड़क दोहावली  - बेधड़क

गुस्सा ऐसा कीजिए, जिससे होय कमाल ।
जामुन का मुखड़ा तुरत बने टमाटर लाल।।
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बादल-राग - सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'

झूम-झूम मृदु गरज गरज घन घोर!
राग-अमर! अम्बर में भर निज रोर!
झर झर झर निर्झर गिरि-सर में,
घर, मरु तरु-मर्मर, सागर में,
सरित-तड़ित-गति-चकित पवन में,
मन में, विजन गहन कानन में,
आनन-आनन में, रव घोर कठोर-
राग अमर! अम्बर में भर निज रोर!
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मन की आँखें खोल - सुदर्शन | Sudershan

बाबा, मन की आँखें खोल!
दुनिया क्या है खेल-तमाशा,
चार दिनों की झूठी आशा,
पल में तोला, पल में माशा,
ज्ञान-तराजू लेके हाथ में---
तोल सके तो तोल। बाबा, मनकी आँखें खोल!

झूठे हैं सब दुनियावाले,
तन के उजले मनके काले,
इनसे अपना आप बचा ले,
रीत कहाँ की प्रीत कहाँ की---
कैसा प्रेम-किलोल। बाबा, मनकी आँखें खोल!
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नीरज के लोकप्रिय दोहे  - गोपालदास ‘नीरज’

गागर में सागर भरे मुँदरी में नवरत्न। 
अगर न ये दोहा करे, है सब व्यर्थ प्रयत्न॥ 
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लाल देह लाल रंग, रंग लियो बजरंग - आराधना झा श्रीवास्तव

बानर मैं मूढ़मति, दोसर न मोर गति।
दया करो सीतापति, नयन तरसते ।।१।।
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इसलिए तनहा खड़ा है - राजगोपाल सिंह

इसलिए तनहा खड़ा है
है अभी उसमें अना है

बिन बिके जो लिख रहा है
हममें वो सबसे बड़ा है
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सत्य-असत्य में अंतर - शरदेन्दु शुक्ल 'शरद'

मैंने चवन्नी डाली
जैसे ही आरती की थाली
सामने आई,
बाजू वाले ने
हमें घूरते हुए
सौ का पत्ता डाला
और छाती फुलाई!
तभी पीछे से किसी ने कहा,
सेठजी
घर में छापा पड़ गया है,
शहर में इज्जत का
जनाज़ा निकल गया है,
उसने चोर आंखों से
हमें देखा,
उसकी निगाह
शर्म से गड़ रही थी,
और अब मेरी चवन्नी
सौ पे भारी पड़ रही थी।
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स्वाभिमानी व्यक्तित्व - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

हिन्दी साहित्य की सभी विधाओं में सफलतापूर्वक साहित्य रचना करने वाले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपने स्वाभिमानी व्यक्तित्व का परिचय निम्न कवित्त में दिया है--
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तीन तरह के लोग - प्रदीप चौबे

इस देश में
तीन तरह के लोग रहते है
एक-- खून-पसीना बहाने वाले,
दूसरे-- पसीना बहाने वाले,
तीसरे-- खून बहाने वाले,
खून-पसीने वाला
रिक्शा चलाता है,
पसीने वाला
घर चलाता है
और खून बहाने वाला
देश चलाता है।
रिक्शेवाला
मजदूर होता है,
घरवाला
मजबूर होता है
और देश चलाने वाला
मशहूर होता है।
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आयुर्वेदिक देसी दोहे  - भारत-दर्शन संकलन

रस अनार की कली का, नाक बूंद दो डाल।
खून बहे जो नाक से, बंद होय तत्काल।।
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सजनवा के गाँव चले  - आनन्द विश्वास (Anand Vishvas)

सूरज उगे या शाम ढले,
मेरे पाँव सजनवा के गाँव चले।
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कलमकार पर कुंडलियाँ - राम औतार पंकज

कलमकार का है यही, गुण कर्त्तव्य पुनीत ।
सदा सृष्टि-कल्याण हित, रचे नीति के गीत ।।
रचे नीति के गीत, स्वस्थ मन-भ्रान्ति न लाये ।
जगा विश्व बन्धुत्व, न्याय हित क्रान्ति जगाये ।।
'पंकज' हो निष्पक्ष, पक्षधर सदाचार का।
पूजेगा पद-चिह्न, जगत उस कलमकार का।।
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माँ की याद बहुत आती है ! - डॉ शम्भुनाथ तिवारी

माँ की याद बहुत आती है !
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मैं आत्मलीन हूँ - लक्ष्मीकांत वर्मा

मैं आत्मलीन हूँ
रहूँगा आत्मलीन
बन नही सकता आवाज़ मैं किराये की
नहीं हूँ भोपू, प्रतिध्वनि किसी विज्ञापन की
इश्तहार की कोर पर छपी हुई तसवीर नहीं हूँ मैं
नहीं हूँ वह डुप्लीकेटर
जो छाती पर वज्र रख
अनुकृति की मशीन सा रेता जाये
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