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 व्यंग्य | Satire
भारत की सारी प्रांतीय भाषाओं का दर्जा समान है। - रविशंकर शुक्ल।

 
व्यंग्य
हिंदी व्यंग्य. Hindi Satire.

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एक यांत्रिक संतान  - डॉ सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त

उसकी कोख में बच्ची थी। अब आप पूछेंगे कि मुझे कैसे पता? कहीं डॉक्टरों को खिला-पिलाकर मालूम तो नहीं करवा लिया! यदि मैं कहूँ कि उसकी कोख में बच्चा था, तब निश्चित ही आप इस तरह का सवाल नहीं करते। आसानी से मान लेते। हमारे देश में लिंग भेद केवल व्याकरण तक सीमित है। वैचारिक रूप से हम अब भी पुल्लिंगवादी हैं। खैर जो भी हो उसकी कोख में बच्चा था या बच्ची यह तो नौ महीने बाद ही मालूम होने वाला था। चूंकि पहली संतान होने वाली थी सो घर की बुजुर्ग पीढ़ी खानदान का नाम रौशन करने वाले चिराग की प्रतीक्षा कर रही थी। वह क्या है न कि कोख से जन्म लेने वाली संतान अपने साथ-साथ कुछ न दिखाई देने वाले टैग भी लाती हैं। मसलन लड़का हुआ तो घर का चिराग और लड़की हुई तो घर की लक्ष्मी। कोख का कारक पुल्लिंग वह इस बात से ही अत्यंत प्रसन्न रहता है कि उसके साथ पिता का टैग लग जाएगा, जबकि कोख की पीड़ा सहने वाली ‘वह’ माँ बाद में बनेगी, सहनशील पहले।
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प्रश्नचिह्न  - लतीफ घोंघी

प्रश्नवाचक चिह्न पर उनकी बड़ी आस्था है। उनकी ऐसी मान्यता है कि अपने देश की सार्थक भाषा है तो प्रश्नवाचक चिह्न की भाषा। उनकी आदत है कि हर स्थिति के पीछे वे एक प्रश्नवाचक चिह्न जरूर लगा देते हैं। इससे दो फायदे हैं। पहला यह कि लोगों को पता चलता है कि इस आदमी का अध्ययन और चिंतन-मनन तगड़ा है और दूसरा यह कि एक प्रश्नवाचक के लग जाने से उस स्थिति के अनेक नये कोण पैदा हो जाते हैं। जैसे आपने लिखा--प्रधान मंत्री। वे उसके पीछे प्रश्नवाचक चिह्न लगा देंगे। आपने लिखा--त्रिपाठी। वे उसके पीछे प्रश्नवाचक चिह्न लगा देंगे।
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माँ तो आखिर माँ होती है - रश्मि चौधरी ‘प्रभास’

माँओं का काम ही क्या है? रोज सुबह मुर्गे की बांग के साथ ही उठाने लगती हैं बच्चों को। हमेशा ही सात बजे को नौ बजा बताती हैं और भोर को दोपहर बताती हैं।  बच्चों ने भी वर्षों से सुन-सुनकर अपने दिल और दिमाग को न केवल उसी ढंग से फिक्स कर लिया है बल्कि उसी ढंग की बॉडी क्लॉक भी बना ली है भीतर ही भीतर। चादर में लिपटे उनके ऊंघते हुए कान सुनते हैं कि अच्छा दोपहर है तब तो और सोना है। अच्छा नौ बज गए तो अभी थोड़ी देर और सही। माँ  कहती है कि जीवन पंछियों की भांति होना चाहिए शाम होते ही शयनकक्ष में और भोर होते ही डाली-डाली चीं-चीं–चूं-चूं और तिनका-भुनगा टैं-टैं –टूं-टूं।  ऐसे में माँ  जुगत लगाती है कि कैसे हमारे लाड़ले भारत कुमार को उठाया जाए।  चार पांच छेदों से सुशोभित ढक्कन वाली बोतल पानी से भर कर रात में याद से फ्रिज में रख देती है कि उससे भारत पर सुबह-सुबह बौछार की जा सके लेकिन बौछार भी निराश होकर धम्म से धरती पर बैठ जाती है। अगली जुगत पंखा, कूलर बंद करने की है लेकिन खर्राटे लेते भारत पर कोई असर नहीं। तरह-तरह के पकवान की सुगंध और नाक में चिड़िया के पंख से गुदगुदी भी बेकार पड़ जाती है। खैर! वह अपने भारत को दशकों से समझाती रही थी कि देखो गलत लोगों को दोस्त मत बनाना।
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पत्रकार, आज़ादी और हमला - प्रो. राजेश कुमार

मास्टर अँगूठाटेक परेशानी की हालत में इधर से उधर फिर रहे थे, जैसे कोई बहुत ग़लत घटना हो गई हो, और वे उसे सुधारने के लिए भी कुछ न कर पा रहे हों।

“क्यों परेशान घूम रहे हो? ऐसा क्या हो गया?" लतीपतीराम ने पूछा।
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