जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।
कविताएं
देश-भक्ति की कविताएं पढ़ें। अंतरजाल पर हिंदी दोहे, कविता, ग़ज़ल, गीत क्षणिकाएं व अन्य हिंदी काव्य पढ़ें। इस पृष्ठ के अंतर्गत विभिन्न हिंदी कवियों का काव्य - कविता, गीत, दोहे, हिंदी ग़ज़ल, क्षणिकाएं, हाइकू व हास्य-काव्य पढ़ें। हिंदी कवियों का काव्य संकलन आपको भेंट!

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झिलमिल आई है दीवाली - भारत-दर्शन संकलन

जन-जन ने हैं दीप जलाए
लाखों और हजारों ही
धरती पर आकाश आ गया
सेना लिए सितारों की
छुप गई हर दीपक के नीचे
देखो आज अमावस काली
सुंदर-सुंदर दीपों वाली
झिलमिल आई है दीवाली
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भाई दूज - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

भैया दूज
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उतने सूर्यास्त के उतने आसमान - आलोक धन्वा

उतने सूर्यास्त के उतने आसमान
उनके उतने रंग
लम्बी सड़कों पर शाम
धीरे बहुत धीरे छा रही शाम
होटलों के आसपास
खिली हुई रोशनी
लोगों की भीड़
दूर तक दिखाई देते उनके चेहरे
उनके कंधे, जानी-पहचानी आवाज़ें
कभी लिखेंगे कवि इसी देश में
इन्हें भी घटनाओं की तरह।
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ओम ह्रीं श्री लक्ष्म्यै नमः  - राजेश्वर वशिष्ठ

हमारे घर में पुस्तकें ही पुस्तकें थीं
चर्चा होती थी वेदों, पुराणों और शास्त्रों की
राम चरित मानस के साथ पढ़ी जाती थी
चरक संहिता और लघु पाराशरी
हम उन ग्रंथों को सम्भालने में ही लगे रहते थे!
घर में अक्सर खाली रहता था
अनाज का भंडार
पिता की जेबों में
शायद ही कभी दिखते थे हरे हरे नोट
पर हमें भूखा नहीं रहना पड़ा कभी
जब भी माँ शिकायत करती
कुछ न होने की
कोई न कोई निवासी
मुहुर्त या लग्न पूछने के बहाने
दे ही जाता सेर भर अनाज,
गुड़ और सवा रुपया
और पिता जी उन रुपयों को
संभाल कर रख देते
मंदिर के लाल कपड़े के नीचे,
लक्ष्मी के चरणों में!
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बेटी-युग - आनन्द विश्वास (Anand Vishvas)

सतयुग, त्रेता, द्वापर बीता, बीता कलयुग कब का,
बेटी-युग के नए दौर में, हर्षाया हर तबका।
बेटी-युग में खुशी-खुशी है,
पर मेहनत के साथ बसी है।
शुद्ध-कर्म निष्ठा का संगम,
सबके मन में दिव्य हँसी है।
नई सोच है, नई चेतना, बदला जीवन सबका,
बेटी-युग के नए दौर में, हर्षाया हर तबका।
इस युग में ना परदा बुरका,
ना तलाक, ना गर्भ-परिक्षण।
बेटा बेटी, सब जन्मेंगे,
सबका होगा पूरा रक्षण।
बेटी की किलकारी सुनने, लालायित मन सबका।
बेटी-युग के नए दौर में, हर्षाया हर तबका।
बेटी भार नहीं इस युग में,
बेटी है आधी आबादी।
बेटा है कुल का दीपक, तो,
बेटी है दो कुल की थाती।
बेटी तो शक्ति-स्वरूपा है, दिव्य-रूप है रब का।
बेटी-युग के नए दौर में, हर्षाया हर तबका।
चौके चूल्हे वाली बेटी,
बेटी-युग में कहीं न होगी।
चाँद सितारों से आगे जा,
मंगल पर मंगलमय होगी।
प्रगति-पंथ पर दौड़ रहा है, प्राणी हर मज़हब का।
बेटी-युग के नए दौर में, हर्षाया हर तबका।
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खौफ़ - जयप्रकाश मानस | Jaiprakash Manas

जाने-पहचाने पेड़ से
फल के बजाय टपक पड़ता है बम
काक-भगोड़ा राक्षस से कहीं ज्यादा खतरनाक
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हिंदी पर कवितांएं - भारत-दर्शन संकलन

इस पृष्ठ पर विभिन्न हिंसी कवियों की हिंदी पर लिखी कविताएं संकलित की गई हैं जिनमें डा० लक्ष्मीमल्ल सिंघवी, श्रीनिवास, डॉ० इंद्रराज बैद 'अधीर',  श्रीमती रेवती, सुनीता बहल, बाबू जगन्नाथ, रघुवीर शरण, राकेश पाण्डेय, राजेश चेतन, जयप्रकाश शर्मा और रोहित कुमार हैप्पी की रचनायें सम्मिलित हैं।
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बूढ़ा चेहरा  - कोमल मैंदीरत्ता

सालों से देखा
झुर्रियों के ताने-बाने में,
अनंत अनुभवों को समेटे,
बूढ़ों का वह धीर-गंभीर चेहरा।
जब छोटी थी मैं, तब भी
वैसा ही था,
और आज भी,
वैसा ही है।
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दोस्ती - राकेश एल रॉबर्ट

दोस्ती इम्तिहान होती है
जो पास कर जाए,
वो दोस्ती महान होती है।
फरिश्तों से बढ़ कर होते है दोस्त,
जिनकी दोस्ती दोस्ती नहीं,
जान होती है।
मिट कर मिटा देती है, हस्ती दुश्मन की
दोस्ती तो, न रुकने वाला बाण होती है।
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गोरख पांडे की दो कविताएं  - गोरख पांडे

तंत्र
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आशा का गीत - गोरख पांडे

आएँगे, अच्छे दिन आएँगे
गर्दिश के दिन ये कट जाएँगे
सूरज झोपड़ियों में चमकेगा
बच्चे सब दूध में नहाएँगे
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मोह  - शैलेन्द्र कुमार शर्मा

पेड़ अगर जो मोह लगाते
फल डालियों पर सड़ जाते,
नदियां तेरा-मेरा जो करती
कभी नहीं सागर तक तरती।
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कच्चे-पक्के मकान - सोमनाथ गुप्ता 'दीवाना रायकोटी'

कच्चे मकान थे सच्चे इंसान थे
दिलों में मोहब्बत, एक दूसरे की जान थे 
मिलजुल कर करते काम, ना कोई एहसान थी
बोलों के पक्के, इज़्ज़त में आगे 
बच्चों के लिए माँ-बाप ही उनकी पहचान थे
देसी खाना, देसी पहनना और मीठे पकवान थे
इज़्ज़त के रखवाले, हट्टे-कट्टे नौजवान थे
हर जरूरत हो जाती थी पूरी, चाहे कुछ कम सामान थे
फ़रेब लिपट गया है सीने से अब
खो गए परिवारों के नाम कहीं
होती नहीं जरूरतें पूरी
घर में भरा पड़ा ढेरों सामान है
माँ-बाप बैठे हैं दुबके घर के कोने में
बदल गया कितना इंसान है
हर किसी का हर किसी पर इक एहसान है
अब ना किसी की कोई पहचान है
बन गए 'दीवाना' पक्के अब मकान है।
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दो छोटी कविताएँ - दिनेश भारद्वाज

दुनिया 
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