जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।
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आपकी हँसी  - रघुवीर सहाय | Raghuvir Sahay

निर्धन जनता का शोषण है
कह कर आप हँसे
लोकतंत्र का अंतिम क्षण है
कह कर आप हँसे
सबके सब हैं भ्रष्टाचारी
कह कर आप हँसे
चारों ओर बड़ी लाचारी
कह कर आप हँसे
कितने आप सुरक्षित होंगे
मैं सोचने लगा
सहसा मुझे अकेला पा कर
फिर से आप हँसे
...

प्रभु ईसा - मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt

मूर्तिमती जिनकी विभूतियाँ
जागरूक हैं त्रिभुवन में;
मेरे राम छिपे बैठे हैं
मेरे छोटे-से मन में;
...

दिवाली के दिन | हास्य कविता - गोपालप्रसाद व्यास | Gopal Prasad Vyas

''तुम खील-बताशे ले आओ,
हटरी, गुजरी, दीवट, दीपक।
लक्ष्मी - गणेश लेते आना,
झल्लीवाले के सर पर रख।
...

क्योंकि सपना है अभी भी - धर्मवीर भारती | Dhramvir Bharti

...क्योंकि सपना है अभी भी
इसलिए तलवार टूटी अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी

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जगमग जगमग - सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi

हर घर, हर दर, बाहर, भीतर,
नीचे ऊपर, हर जगह सुघर,
कैसी उजियाली है पग-पग?
जगमग जगमग जगमग जगमग!
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वंदना के इन स्वरों में - सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi

वंदना के इन स्वरों में, एक स्वर मेरा मिला लो।
वंदिनी माँ को न भूलो,
राग में जब मत्त झूलो,
अर्चना के रत्नकण में, एक कण मेरा मिला लो।
जब हृदय का तार बोले,
शृंखला के बंद खोले,
हों जहाँ बलि शीश अगणित, एक शिर मेरा मिला लो।
...

मधुर-मधुर मेरे दीपक जल - महादेवी वर्मा | Mahadevi Verma

मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!
युग-युग, प्रतिदिन, प्रतिक्षण, प्रतिपल
प्रियतम का पथ आलोकित कर।
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बीज  - संजय भारद्वाज

जलती सूखी जमीन
ठूँठ-से खड़े पेड़
अंतिम संस्कार की
प्रतीक्षा करती पीली घास,
लू के गर्म शरारे
दरकती माटी की दरारें
इन दरारों के बीच पड़ा
वो बीज...,
मैं निराश नहीं हूँ
ये बीज मेरी आशा का केन्द्र है।
ये,
जो अपने भीतर समाये है
असीम संभावनाएँ-
वृक्ष होने की
छाया देने की
बरसात देने की
फल देने की
और हाँ;
फिर एक नया बीज देने की,
मैं निराश नहीं हूँ
ये बीज
मेरी आशा का केन्द्र है।
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साथी, घर-घर आज दिवाली! - हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan

साथी, घर-घर आज दिवाली!
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आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ  - हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan

आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ
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दीपक जलाना कब मना है  - हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan

स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों, को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है
है अंधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है।
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फूलवाली - रामकुमार वर्मा

फूल-सी हो फूलवाली।
किस सुमन की साँस तुमने
आज अनजाने चुरा ली!
जब प्रभा की रेख दिनकर ने
गगन के बीच खींची।
तब तुम्हीं ने भर मधुर
मुस्कान कलियाँ सरस सींची,
किंतु दो दिन के सुमन से,
कौन-सी यह प्रीति पाली?
प्रिय तुम्हारे रूप में
सुख के छिपे संकेत क्यों हैं?
और चितवन में उलझते,
प्रश्न सब समवेत क्यों हैं?
मैं करूँ स्वागत तुम्हारा,
भूलकर जग की प्रणाली।
तुम सजीली हो, सजाती हो
सुहासिनि, ये लताएँ
क्यों न कोकिल कण्ठ
मधु ऋतु में, तुम्हारे गीत गाएँ!
जब कि मैंने यह छटा,
अपने हृदय के बीच पा ली!
फूल सी हो फूलवाली।
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कागज़ - स्वरांगी साने

उन पीले ज़र्द कागज़ों के पास
कहने को बहुत कुछ था।
उन कोरे नए कागज़ों के पास
भीनी महक के अलावा कुछ न था।

पीले पड़ चुके कागज़ों की
स्याही भी धुँधला गई थी
कोनों से होने लगे थे रेशा-रेशा
पर कितने अनकहे अनुभवों-अनुभूतियों को लिये थे वे।
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ख़ाक - अमर मंडल

था मैं भी पेड़,
अब हूँ धरा में पड़ा सा,
अब धूल हो जाऊंगा,
धूल मे पड़ा-पड़ा,
सहा था सूरज की तपन,
अब हल्की चिंगारी राख़ सा कर जाएगी,
ख़ाक ने जना था मुझे,
अब ख़ाक ख़ाक सा कर जाएगी।
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हम और वनवासी - कुमार हर्ष

सुना है वनवासियों के चाँद से गहरे रिश्ते हैं।
उनकी ज़मीन और आसमान तो हमने छीन ही लिया
चलो चाँद भी छीन लाते हैं।
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नए किस्से  - अनन्य दूबे

हर चेहरे को गौर से देखो
छुपी हैं अनसुनी कहानियां
हंस के रोना रो के हंसना
जीवन की कुछ निशानियां
...

क्यों न  - मनीषा एन पाठक

क्यों न कुछ शब्द चुन लूँ,
कोई कविता या कहानी बुन लूँ,
भाव मेरे, संवेदना मेरी,
उथल-पुथल मेरे मन की,
क्यों ढूँढू, क्यों उधार लूँ,
क्यों न कोई गीत स्वयं गुन लूँ।
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खामोशियाँ - राधा

खामोशियों का दौर इस कदर बढ़ गया है
शब्द होंठों पर आए बिना ही इस मन में दब गया है
क्योंकि शब्दों से आज कल रूठने का रिवाज इस कदर बढ़ गया है,
किसी को कुछ भी बोलना जैसे खुद पर ही भारी पड़ गया है।
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आओ फिर से दीया जलाएं | कविता - अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee

आओ फिर से दिया जलाएं
भरी दूपहरी में अधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़े
बुझी हुई बाती सुलगाएं
आओ कि से दीया जलाएं।
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कैदी कविराय की कुंडलिया  - अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee

गूंजी हिन्दी विश्व में स्वप्न हुआ साकार,
राष्ट्रसंघ के मंच से हिन्दी का जैकार।
हिन्दी का जैकार हिन्द हिन्दी में बोला,
देख स्वभाषा-प्रेम विश्व अचरज में डोला।
कह कैदी कविराय मेम की माया टूटी,
भारतमाता धन्य स्नेह की सरिता फूटी।।
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विप्लव-गान | बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ - बालकृष्ण शर्मा नवीन | Balkrishan Sharma Navin

कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल-पुथल मच जाये,
एक हिलोर इधर से आये, एक हिलोर उधर से आये,
प्राणों के लाले पड़ जायें त्राहि-त्राहि स्वर नभ में छाये,
नाश और सत्यानाशों का धुआँधार जग में छा जाये,
बरसे आग, जलद जल जाये, भस्मसात् भूधर हो जाये,
पाप-पुण्य सद्-सद् भावों की धूल उड़ उठे दायें-बायें,
नभ का वक्षस्थल फट जाये, तारे टूक-टूक हो जायें,
कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल-पुथल मच जाये!
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मुक्तिबोध की कविताएं - गजानन माधव मुक्तिबोध | Gajanan Madhav Muktibodh

यहाँ मुक्तिबोध के कुछ कवितांश प्रकाशित किए गए हैं। हमें विश्वास है पाठकों को रूचिकर व पठनीय लगेंगे।
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कलम गहो हाथों में साथी - हरिहर झा | ऑस्ट्रेलिया | Harihar Jha

कलम गहो हाथों में साथी
शस्त्र हजारों छोड़
...

लिखना बाकी है - हरिहर झा | ऑस्ट्रेलिया | Harihar Jha

शब्दों के नर्तन से शापित
अंतर्मन शिथिलाया
लिखने को तो बहुत लिखा
पर कुछ लिखना बाकी है
...

दीवाली का सामान - भारत-दर्शन संकलन | Collections

हर इक मकां में जला फिर दिया दिवाली का
हर इक तरफ को उजाला हुआ दिवाली का
सभी के दिन में समां भा गया दिवाली का
किसी के दिल को मजा खुश लगा दिवाली का
अजब बहार का है दिन बना दिवाली का।
...

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