जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।
गीत

गीतों में प्राय: श्रृंगार-रस, वीर-रस व करुण-रस की प्रधानता देखने को मिलती है। इन्हीं रसों को आधारमूल रखते हुए अधिकतर गीतों ने अपनी भाव-भूमि का चयन किया है। गीत अभिव्यक्ति के लिए विशेष मायने रखते हैं जिसे समझने के लिए स्वर्गीय पं नरेन्द्र शर्मा के शब्द उचित होंगे, "गद्य जब असमर्थ हो जाता है तो कविता जन्म लेती है। कविता जब असमर्थ हो जाती है तो गीत जन्म लेता है।" आइए, विभिन्न रसों में पिरोए हुए गीतों का मिलके आनंद लें।

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पथ की बाधाओं के आगे | गीत - दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar

पथ की बाधाओं के आगे घुटने टेक दिए
अभी तो आधा पथ चले!
तुम्हें नाव से कहीं अधिक था बाहों पर विश्वास,
क्यों जल के बुलबुले देखकर गति हो गई उदास,
ज्वार मिलेंगे बड़े भंयकर कुछ आगे चलकर--
अभी तो तट के तले तले!
सीमाओं से बाँध नहीं पाता कोई मन को,
सभी दिशाओं में मुड़ना पड़ता है जीवन को,
हो सकता है रेखाओं पर चलना तुम्हें पड़े
अभी तो गलियों से निकले!
शीश पटकने से कम दुख का भार नहीं होगा,
आँसू से पीड़ा का उपसंहार नहीं होगा,
संभव है यौवन ही पानी बनकर बह जाए
अभी तो नयन-नयन पिघले!
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श्रमिक का गीत  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

रहा हाड़ ना मास मेरा
जानूँ हूँ इतिहास तेरा।

हम धरती पर तंग हुए
देवलोक में वास तेरा।
          जानूँ हूँ इतिहास तेरा॥
 
खाऊँ, ओड़ूँ, इसे बिछौऊं
किया बड़ा विश्वास तेरा।
           जानूँ हूँ इतिहास तेरा॥

जो चाहे तू वो मैं बोलूँ
ना बंधुआ, ना दास तेरा।
           जानूँ हूँ इतिहास तेरा॥

'रोहित' सुन ले बात ध्यान से
वरना हो जाये नास तेरा।
        जानूँ हूँ इतिहास तेरा॥
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धर्म निभा - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

कवि कलम का धर्म निभा
कलम छोड़ या सच बतला।
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पीर  - डॉ सुधेश

हड्डियों में बस गई है पीर।
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मजदूर की पुकार  - अज्ञात

हम मजदूरों को गाँव हमारे भेज दो सरकार
सुना पड़ा घर द्वार
मजबूरी में हम सब मजदूरी करते हैं
घरबार छोड़ करके शहारों में भटकते हैं
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अभिशापित जीवन - डॉ॰ गोविन्द 'गजब'

साथ छोड़ दे साँस, न जाने कब थम जाए दिल की धड़कन।
बोझ उठाये कंधों पर, जीते कितना अभिशापित जीवन॥
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