जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।
काव्य
जब ह्रदय अहं की भावना का परित्याग करके विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, तब वह मुक्त हृदय हो जाता है। हृदय की इस मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है उसे काव्य कहते हैं। कविता मनुष्य को स्वार्थ सम्बन्धों के संकुचित घेरे से ऊपर उठाती है और शेष सृष्टि से रागात्मक संबंध जोड़ने में सहायक होती है। काव्य की अनेक परिभाषाएं दी गई हैं। ये परिभाषाएं आधुनिक हिंदी काव्य के लिए भी सही सिद्ध होती हैं। काव्य सिद्ध चित्त को अलौकिक आनंदानुभूति कराता है तो हृदय के तार झंकृत हो उठते हैं। काव्य में सत्यं शिवं सुंदरम् की भावना भी निहित होती है। जिस काव्य में यह सब कुछ पाया जाता है वह उत्तम काव्य माना जाता है।

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अहमद फ़राज़ की दो ग़ज़लें  - अहमद फ़राज़

नज़र की धूप में साये घुले हैं शब की तरह
मैं कब उदास नहीं था मगर न अब की तरह
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प्यार !  - आचार्य रामचन्द्र शुक्ल

प्यार! कौन सी वस्तु प्यार है? मुझे बता दो।
किस को करता कौन प्यार है ? यही दिखा दो।।
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एकता का बल - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

Hum Ek Hain New Zealand
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देशभक्ति | Poem on New Zealand - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

NZ Flag
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पेट-महिमा  - बालमुकुन्द गुप्त

साधो पेट बड़ा हम जाना।
यह तो पागल किये जमाना॥
मात पिता दादा दादी घरवाली नानी नाना।
सारे बने पैट की खातिर वाकी फकत बहाना॥
पेट हमारा हुण्डी पुर्जा पेटहि माल खजाना।
जबसे जन्मे सिवा पेट के और न कुछ पहचाना॥
लड्डू पेड़ा पूरी बरफी रोटी साबूदाना।
सबै जात है इसी पेट में हलवा तालमखाना॥
यही पेट चट कर गया होटल पी गया बोतलखाना।
केला मूली आम सन्तरे सबका यही खजाना॥
पेट भरे लारड कर्जन ने लेक्चर देना जाना।
जब जब देखा तब तब समझे जइँ खाना तहँ गाना॥
बाहर धर्म भवन शिवमन्दिर क्या ढूँढे दीवाना।
ढूँढो इसी पेट में प्यारो तब कुछ मिले ठिकाना॥
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मुक़ाबला - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

दमदार ने
पूरे दम से
जान लड़ा दी
मंज़िल पाने को,
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खेल का खेल  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

हार और जीत
भोगते हैं तीनों ही - अनाड़ी, जुगाड़ी और खिलाड़ी।
अनाड़ी को हारने पर
आती है शर्म।
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रावण या राम - जैनन प्रसाद | फीजी

रामायण के पन्नों में
रावण को देख कर,
काँप उठा मेरा मन
अपने अंतर में झाँक कर।
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रहीम के दोहे - 2 - रहीम

(21)
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भूले स्वाद बेर के  - नागार्जुन | Nagarjuna

सीता हुई भूमिगत, सखी बनी सूपनखा
वचन बिसर गए देर के सबेर के
बन गया साहूकार लंकापति विभीषण
पा गए अभयदान शावक कुबेर के
जी उठा दसकंधर, स्तब्ध हुए मुनिगण
हावी हुआ स्वर्णमरिग कंधों पर शेर के
बुढ़भस की लीला है, काम के रहे न राम
शबरी न याद रही, भूले स्वाद बेर के
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मेरे देश की आँखें  - अज्ञेय | Ajneya

नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं
पुते गालों के ऊपर
नकली भवों के नीचे
छाया प्यार के छलावे बिछाती
मुकुर से उठाई हुई
मुस्कान मुस्कुराती
ये आँखें -
नहीं, ये मेरे देश की नहीं हैं...

तनाव से झुर्रियाँ पड़ी कोरों की दरार से
शरारे छोड़ती घृणा से सिकुड़ी पुतलियाँ -
नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं...

वन डालियों के बीच से
चौंकी अनपहचानी
कभी झाँकती हैं
वे आँखें,
मेरे देश की आँखें,
खेतों के पार
मेड़ की लीक धारे
क्षिति-रेखा को खोजती
सूनी कभी ताकती हैं
वे आँखें...

उसने
झुकी कमर सीधी की
माथे से पसीना पोछा
डलिया हाथ से छोड़ी
और उड़ी धूल के बादल के
बीच में से झलमलाते
जाड़ों की अमावस में से
मैले चाँद-चेहरे सुकचाते
में टँकी थकी पलकें
उठायीं -
और कितने काल-सागरों के पार तैर आयीं
मेरे देश की आँखें...
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जेल में क्‍या-क्‍या है - पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'

पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र' 1926-27 में जेल में बंद थे लेकिन जेल में होने पर भी उनके प्राण किसी प्रकार अप्रसन्‍न नहीं थे। देखिए, जेल में पड़े-पड़े उनको क्या सूझी कि जेल में क्‍या-क्‍या है, पर कविता रच डाली -
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मंदिर-दीप - सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi

मैं मंदिर का दीप तुम्हारा।
जैसे चाहो, इसे जलाओ,
जैसे चाहो, इसे बुझायो,
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रंग दे बसंती चोला गीत का इतिहास - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

'रंग दे बसंती चोला' अत्यंत लोकप्रिय देश-भक्ति गीत है। यह गीत किसने रचा? इसके बारे में बहुत से लोगों की जिज्ञासा है और वे समय-समय पर यह प्रश्न पूछते रहते हैं।
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रहीम के दोहे - रहीम

(1)
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तुलसीदास | सोहनलाल द्विवेदी की कविता  - सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi

अकबर का है कहाँ आज मरकत सिंहासन?
भौम राज्य वह, उच्च भवन, चार, वंदीजन;
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चीरहरण - जैनन प्रसाद | फीजी

हँस रहे हैं आज
कई दुशासन।
द्रोपदी को निर्वस्त्र देख।
और झुके हुए हैं
गर्दन वीरों के।
सोच रहें है--
इस आधुनिक जुग में
कैसे वार करें
तीरों के।
चीखती हुई उस
अबला की पुकार
सभी को खल रहा है।
आज कृष्ण की जगह
लोगों में
दुर्योधन पल रहा है ।
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एक बैठे-ठाले की प्रार्थना  - पं० बदरीनाथ भट्ट

लीडरी मुझे दिला दो राम,
चले जिससे मेरा भी काम।
कुछ ही दिन चलकर दलदल में फंस जाती है नाव,
भूख लगे पर दूना जोर पकड़ते मन के भाव--
कि मैं भी कर डालूँ कुछ काम,
लीडरी मुझे दिला दो राम ॥1॥
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चलो मन गंगा-जमना-तीर - मीराबाई | Meerabai

गंगा-जमना निरमळ पाणी सीतल होत सरीर ।
बंसी बजावत गावत कान्हो संग लियाँ बळ बीर ।।
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गज़ब यह सूवा शहर मेरी रानी  - कमला प्रसाद मिश्र | फीजी | Kamla Prasad Mishra

गली-गली में घूमे नसेड़ी दुनिया यहाँ मस्तानी
गज़ब यह सूवा शहर मेरी रानी।
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डॉ॰ सुधेश के मुक्तक - डॉ सुधेश

प्राण का पंछी सवेरे क्यों चहकता है
शबनम बूँद से नया बिरवा लहकता है
हड्डियों के पसीने से इसे सींचा है
फूल मेरे चमन का ज़्यादा महकता है ।
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दुनिया मतलब की गरजी  - द्यानत

दुनिया मतलब की गरजी, अब मोहे जान पडी ।।टेक।।
हरे वृक्ष पै पछी बैठा, रटता नाम हरी।
प्रात भये पछी उड चाले, जग की रीति खरी ।।१।।
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होली  - अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' | Ayodhya Singh Upadhyaya Hariaudh

मान अपना बचावो, सम्हलकर पाँव उठावो ।
गाबो भाव भरे गीतों को, बाजे उमग बजावो ॥
तानें ले ले रस बरसावो, पर ताने ना सहावो ।
भूल अपने को न जावो ।।१।।
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झूठों ने झूठों से... - राहत इन्दौरी

झूठों ने झूठों से कहा है सच बोलो
सरकारी ऐलान हुआ है सच बोलो
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तू शब्दों का दास रे जोगी - राहत इन्दौरी

तू शब्दों का दास रे जोगी
तेरा कहाँ विश्वास रे जोगी
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जल को तरसे हैं ...  - जया गोस्वामी

जल को तरसे हैं यहाँ खून पसीनो वाले
आसमा छूने लगे लोग ज़मीनो वाले
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जहाँ पेड़ पर... - बशीर बद्र

जहाँ पेड़ पर चार दाने लगे
हज़ारों तरफ से निशाने लगे
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शहीदों के प्रति  - भोलानाथ दर्दी

भइया नहीं है लाशां यह बे कफ़न तुम्हारा
है पूजने के लायक पावन बदन तुम्हारा
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वीर सपूत - रवीन्द्र भारती | देशभक्ति कविता

गंगा बड़ी है हिमालय बड़ा है
तुम बड़े हो या धरती बड़ी है
तुम सरहदों पर रात दिन
जल रहे मशाल हो
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स्नेह-निर्झर बह गया है | सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' - सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'

स्नेह-निर्झर बह गया है
रेत ज्यों तन रह गया है।
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जीत तुम्हारी - विश्वप्रकाश दीक्षित ‘बटुक'

तुम हो अपने शत्रु किन्तु मैं मीत तुम्हारी
तुम जीवन को हार किन्तु मैं जीत तुम्हारी
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हिंडोला - अजय गुप्ता

हिंडोले सा ये जीवन,
घूम रहा है, घुमा रहा है
गोल-गोल
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पानी का रंग - सुखबीर सिंह

पानी के रंग जैसी हैं ये जिंदगी,
इसे जैसे बनाओगे वैसे ही बन जाएगी।
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कोमल मैंदीरत्ता की दो कविताएं - कोमल मैंदीरत्ता

बारहवीं के बच्चे
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रंग गयी ज़मीं फिर से - निशा मोहन

रंग गयी ज़मीं फिर से लाल रंग में
मिट्टी की महक और ख़ुशबू बढ़ी लहू के संग में।
बिछे थे वजूद जब भारत मां की गोद में
एक दफा तो डोला होगा उसका मन भी, सोच
कितनों की चढ़ेगी और कुर्बानी
कब इंसानियत होगी सयानी,
कब वो दिन देखना नसीब होगा!
'मैं वापिस आऊंगा,
और जल्द ही आऊंगा'
ये वादा उनका पूरा होगा।
...

सैनिक  - विश्वनाथ प्रसाद तिवारी

जीविका के लिए निकले थे
हम अपने-अपने घरों से
...

सैनिक अनुपस्थिति में छावनी - वीरेन डंगवाल

लाम पर गई है पलटन
बैरकें सूनी पड़ी हैं
निर्भ्रान्‍त और इत्‍मीनान से
सड़क पार कर रही बंदरों की एक डार
...

मृत्यु-जीवन - हरिशंकर शर्मा

फूल फबीला झूम-झूमकर डाली पर इतराता था,
सौरभ-सुधा लुटा वसुधा पर फूला नहीं समाता था,
हरी-हरी पत्तियाँ प्रेम से, स्वागत कर सुख पाती थीं,
ओस-धूप दोनों हिलमिलकर भली भाँति नहलाती थीं,
...

कैसा समय - नासिर अहमद सिकन्दर

कैसा समय आया भाई!
किस दुश्मन को नजर लगी
किस वैज्ञानिक ने गलती की
किस ऋपि ने दिया शाप
किस राजनीतिज्ञ ने
सदियों पुराने बाल की निकाली खाल
जो इतना बिगड़ा समय
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