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ग़ज़लें |
ग़ज़ल क्या है? यह आलेख उनके लिये विशेष रूप से सहायक होगा जिनका ग़ज़ल से परिचय सिर्फ पढ़ने सुनने तक ही रहा है, इसकी विधा से नहीं। इस आधार आलेख में जो शब्द आपको नये लगें उनके लिये आप ई-मेल अथवा टिप्पणी के माध्यम से पृथक से प्रश्न कर सकते हैं लेकिन उचित होगा कि उसके पहले पूरा आलेख पढ़ लें; अधिकाँश उत्तर यहीं मिल जायेंगे। एक अच्छी परिपूर्ण ग़ज़ल कहने के लिये ग़ज़ल की कुछ आधार बातें समझना जरूरी है। जो संक्षिप्त में निम्नानुसार हैं: ग़ज़ल- एक पूर्ण ग़ज़ल में मत्ला, मक्ता और 5 से 11 शेर (बहुवचन अशआर) प्रचलन में ही हैं। यहॉं यह भी समझ लेना जरूरी है कि यदि किसी ग़ज़ल में सभी शेर एक ही विषय की निरंतरता रखते हों तो एक विशेष प्रकार की ग़ज़ल बनती है जिसे मुसल्सल ग़ज़ल कहते हैं हालॉंकि प्रचलन गैर-मुसल्सल ग़ज़ल का ही अधिक है जिसमें हर शेर स्वतंत्र विषय पर होता है। ग़ज़ल का एक वर्गीकरण और होता है मुरद्दफ़ या गैर मुरद्दफ़। जिस ग़ज़ल में रदीफ़ हो उसे मुरद्दफ़ ग़ज़ल कहते हैं अन्यथा गैर मुरद्दफ़। |
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हमने कोशिश करके देखी | ग़ज़ल - रोहित कुमार 'हैप्पी' |
हमने कोशिश करके देखी पत्थर को पिघलाने की |
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तमाम घर को .... | ग़ज़ल - ज्ञानप्रकाश विवेक | Gyanprakash Vivek |
तमाम घर को बयाबाँ बना के रखता था |
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मुझको अपने बीते कल में | ग़ज़ल - रोहित कुमार 'हैप्पी' |
मुझको अपने बीते कल में, कोई दिलचस्पी नहीं |
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मैं अपनी ज़िन्दगी से | ग़ज़ल - कृष्ण सुकुमार | Krishna Sukumar |
मैं अपनी ज़िन्दगी से रूबरू यूँ पेश आता हूँ |
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क्या कहें ज़िंदगी का फ़साना मियाँ | ग़ज़ल - डॉ. शम्भुनाथ तिवारी |
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बिला वजह आँखों के | ग़ज़ल - डॉ. शम्भुनाथ तिवारी |
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हटाओ धूल ये रिश्ते संभाल कर रक्खो | ग़ज़ल - अखिलेश कृष्णवंशी |
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तुझसे मिलकर हमें महसूस ये होता रहा है | ग़ज़ल - डा भावना |
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वो जब भी | ग़ज़ल - डा भावना |
वो जब भी भूलने को बोलते हैं |
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जाने क्यों कोई शिकायत नहीं आती | ग़ज़ल - डॉ. मनु प्रताप सिंह |
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तूने मुझे निकलने को जब रास्ता दिया | ग़ज़ल - सूबे सिंह सुजान |
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आपसे सच कहूँ मौसम हूँ | ग़ज़ल - सूबे सिंह सुजान |
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ना जाने मेरी जिंदगी यूँ वीरान क्यूँ है | ग़ज़ल - डा अदिति कैलाश |
ना जाने मेरी जिंदगी यूँ वीरान क्यूँ है |
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दो ग़ज़लें - प्रगीत कुँअर |
सबने बस एक नज़र भर देखा |
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अभी होली दिवाली | ग़ज़ल - शुभम् जैन |
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दो ग़ज़लें - कृष्ण सुकुमार | Krishna Sukumar |
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