जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।
काव्य
जब ह्रदय अहं की भावना का परित्याग करके विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, तब वह मुक्त हृदय हो जाता है। हृदय की इस मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है उसे काव्य कहते हैं। कविता मनुष्य को स्वार्थ सम्बन्धों के संकुचित घेरे से ऊपर उठाती है और शेष सृष्टि से रागात्मक संबंध जोड़ने में सहायक होती है। काव्य की अनेक परिभाषाएं दी गई हैं। ये परिभाषाएं आधुनिक हिंदी काव्य के लिए भी सही सिद्ध होती हैं। काव्य सिद्ध चित्त को अलौकिक आनंदानुभूति कराता है तो हृदय के तार झंकृत हो उठते हैं। काव्य में सत्यं शिवं सुंदरम् की भावना भी निहित होती है। जिस काव्य में यह सब कुछ पाया जाता है वह उत्तम काव्य माना जाता है।

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कुछ झूठ बोलना सीखो कविता! - जयप्रकाश मानस | Jaiprakash Manas

कविते!
कुछ फरेब करना सिखाओ कुछ चुप रहना
वरना तुम्हारे कदमों पर चलनेवाला कवि मार दिया जाएगा खामखां
महत्वपूर्ण यह भी नहीं कि तुम उसे जीवन देती हो
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प्रेम पर दोहे  - कबीरदास | Kabirdas

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा-परजा जेहि रुचै, सीस देइ लै जाय॥
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निदा फ़ाज़ली के दोहे  - निदा फ़ाज़ली

बच्चा बोला देख कर मस्जिद आली-शान ।
अल्लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान ।।
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अकाल और उसके बाद - नागार्जुन | Nagarjuna

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोयी उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त
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होली व फाग के दोहे - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

भर दीजे गर हो सके, जीवन अंदर रंग।
वरना तो बेकार है, होली का हुड़दंग॥
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खेलो रंग अबीर उड़ावो - होली कविता  - अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' | Ayodhya Singh Upadhyaya Hariaudh

खेलो रंग अबीर उड़ावो लाल गुलाल लगावो ।
पर अति सुरंग लाल चादर को मत बदरंग बनाओ ।
न अपना रग गँवाओ ।
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दीवानी सी | कविता - डॉ सुनीता शर्मा | न्यूज़ीलैंड

एक औरत जो दफन बरसों से
उसने न जाने कैसे
सांसों के आरोह-अवरोह में
कहीं सपने चुनने-बुनने
आरंभ कर दिए...!
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हरि संग खेलति हैं सब फाग - सूरदास के पद - सूरदास | Surdas

हरि संग खेलति हैं सब फाग।
इहिं मिस करति प्रगट गोपी: उर अंतर को अनुराग।।
सारी पहिरी सुरंग, कसि कंचुकी, काजर दे दे नैन।
बनि बनि निकसी निकसी भई ठाढी, सुनि माधो के बैन।।
डफ, बांसुरी, रुंज अरु महुआरि, बाजत ताल मृदंग।
अति आनन्द मनोहर बानि गावत उठति तरंग।।
एक कोध गोविन्द ग्वाल सब, एक कोध ब्रज नारि।
छांडि सकुच सब देतिं परस्पर, अपनी भाई गारि।।
मिली दस पांच अली चली कृष्नहिं, गहि लावतिं अचकाई।
भरि अरगजा अबीर कनक घट, देतिं सीस तैं नाईं।।
छिरकतिं सखि कुमकुम केसरि, भुरकतिं बंदन धूरि।
सोभित हैं तनु सांझ समै घन, आये हैं मनु पूरि।।
दसहूं दिसा भयो परिपूरन, सूर सुरंग प्रमोद।
सुर बिमान कौतुहल भूले, निरखत स्याम बिनोद।।
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बात छोटी थी... | ग़ज़ल - संध्या नायर | ऑस्ट्रेलिया

बात छोटी थी, मगर हम अड़ गए
सच कहें, लेने के देने पड़ गए
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आदमी से अच्छा हूँ ....! - हलीम 'आईना'

भेड़िए के चंगुल में फंसे
मेमने  ने कहा--
'मुझ मासूम को खाने वाले
हिम्मत है तो
आदमी को खा!'
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लेखक पर दोहे - प्रो. राजेश कुमार

लेखक का गुण एक ही करै भँडौती धाय।
पुरस्कार पै हो नज़र ग्रांट कहीं मिल जाय॥
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रैदास के दोहे - रैदास | Ravidas

जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।
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मीरा के होली पद  - मीराबाई | Meerabai

फागुन के दिन चार होली खेल मना रे॥
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ढोल, गंवार... - सुरेंद्र शर्मा

मैंने अपनी पत्नी से कहा --
"संत महात्मा कह गए हैं--
ढोल, गंवार, शुद्र, पशु और नारी
ये सब ताड़न के अधिकारी!"
[इन सभी को पीटना चाहिए!]
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अल्बेयह कैमू का अनूदित काव्य - भारत-दर्शन संकलन

हमने कुछ दिन हुए 'अल्बेयह कैमू' (Albert Camus) की कुछ अँग्रेजी पंक्तियाँ अपने फेसबुक पर प्रकाशित करके इनका हिन्दी भावानुवाद करने का आग्रह किया था। अल्बेयह कैमू एक फ्रेंच दार्शनिक, लेखक, नाटककार और पत्रकार थे। उन्हें 44 वर्ष की आयु में 1957 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया गया था।
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रमेश पोखरियाल 'निशंक' की क्षणिकाएँ - डॉ रमेश पोखरियाल निशंक

रिश्ते
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एप्रिल फूल  - प्रो० मनोरंजन

एप्रिल फूल आज है साथी,
आओ, तुमको मूर्ख बनाऊँ;
मैं भी हँसू, हँसो कुछ तुम भी,
फिर तुम मैं, मैं तुम बन जाऊँ।
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फगुनिया दोहे - डॉ सुशील शर्मा

फागुन में दुनिया रँगी, उर अभिलाषी आज।
जीवन सतरंगी बने, मन अंबर परवाज॥
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चुम्मन चाचा की होली | कुंडलियाँ - डॉ सुशील शर्मा

होली में पी कर गए,चाचा चुम्मन भंग।
नाली में उल्टे पड़े, लिपटे कीचड़ रंग॥
लिपटे कीचड़ रंग,नहीं सुध-बुध है तन की।
लटके झटके नाच,खूब कर ली है मन की॥
लिए हाथ में रंग, आज चाची भी बोली।
हे प्राणों के नाथ,खेलते आओ होली॥
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सोचो - राजीव कुमार सिंह

लाचारी का लाभ उठाने को लालायित रहते हैं।
सोचो यदि हम मानव हैं तो दानव किसको कहते हैं।
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जीत में यकीन कर - शंकर शैलेन्द्र

तू ज़िन्दा है तो ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!
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होली (फाल्गुन पूर्णिमा) - आचार्य मायाराम पतंग

हवन करें पापों तापों को, देशप्रेम ज्वाला में।
कपट, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, भूले स्नेहिल हाला में॥
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सबके बस की बात नहीं है - गिरेन्द्रसिंह भदौरिया

प्यार भरी सौगात नहीं यह, कुदरत का अतिपात हुआ है ।
ओले बनकर धनहीनों के, ऊपर उल्कापात हुआ है।।
फटे चीथड़ों में लिपटों पर, बर्फीली आँधी के चलते,
पत्थर बरस रहे धरती पर, साधारण बरसात नहीं है।
ऐसे में सड़कों पर सोना, सबके बस की बात नहीं है।।
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दिल्ली पर दो कविताएं  - वेणु गोपाल और विष्णु नागर

कवि दिल्ली में है
(विष्णु नागर की कविता के प्रति आभार सहित )
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रह जाएगा बाकी... - नमिता गुप्ता 'मनसी'

एक न एक दिन खत्म हो जाएंगे ये रास्ते भी
रह जायेगा बाकी..'मिलना' किसी का ही !
...

मेरा सफ़र - संजय कुमार सिंह

जाह्नवी उसे मत रोको
जाने दो मेरी यादों के पार
वह एक लहर है, जो दूर तक जाएगी
बहती हुई इच्छाओं के साथ
उसे जाने दो!
मैं भी कब तक रुकूँगा
भावनाओं के तट पर?
मेरा अर्ध्य लो!
अगर वह मिले तो कहना
मैंने थोड़ा इन्तज़ार किया
और फिर लौट गया अपने भाव-लोक में
एक पूरी गंगा लेकर!
लहरों को गिनना किसी के बस में नहीं है गंगे
मैं तो बस तुम्हारे साथ बहना चाहता हूँ पुण्यभागे!
बहना ही जीवन है भागीरथी!
लोक से लोकोत्तर में नहीं
लोकोत्तर से लोक में ...
कितना महनीय है यह सुख
मम से ममेतर होने का सुख!
कोई कुछ कहे/कहीं रहे
आकर बहे समभाव से!
यह मेरा है, यह तेरा है
नहीं, नहीं,अब यह सब नहीं
या तो सब तेरा या तो सब मेरा
कहीं कोई अवरोध नहीं, रोक नहीं
तुम मुझमें बहो गंगे!
इसी तरह बहती रहो!
अहरह! निरंतर!! सजल रसधार बनकर!!!
...

पारित प्रस्ताव - पद्मेश गुप्त

चर्चों पर चर्चे भी बहुत हो गये
पर्चों पर पर्चे भी बहुत हो गये
और अब तो मेरे दोस्तो
खचों पर खर्चे भी बहुत हो गये ।
काम नहीं चलेगा अब
अध्याय में विराम से
यात्रा में विश्राम से ।
हमने जो लिखा,
जो पढ़ा,
जो सुना है
इस दौर की
जिस दौड़ को
चुना है,
वह जाती है
उस सीढ़ी की ओर
जो सीढ़ी जाती है
नयी पीढ़ी की ओर ।
गति नहीं दी
...

दैवीय रूप नारी - गिरेन्द्र सिंह भदौरिया 'प्राण'

जो प्रेमशक्ति की मायावी ,
जाया बनकर उतरी जग में।
आह्लाद बढ़ाती हुई बढ़ी ,
बनकर छाया छतरी मग में।।
...

यह कैसा दौर है - सोम नाथ गुप्ता

वो मिट्ठा ज़बान का
मैं कड़वा करेला
मैं कह दूँ खरी-खरी
वो करे झमेला
...

मँजी - मधु खन्ना

आज बरसो बाद मुझ को लगा
मैं अपनी दादी के संग सोई
चाँद सितारों के नीचे खोई।
...

लिखना ज़रूरी है... - डॉ॰ साकेत सहाय

मैं बहुत कम कविताएँ लिखता हूँ, आज एक उपहार लिफाफ़े पर इस सुंदर हस्तलेखनी को देखा तो मन में कुछ भाव आए।

लिखना ज़रूरी है
खूब लिखिए
कागज और कलम की
बुनियाद
मज़बूत कीजिए।
क्योंकि
लिखना ज़रूरी है…
...

मेरी आरज़ू रही आरज़ू | ग़ज़ल - निज़ाम-फतेहपुरी

मेरी आरज़ू रही आरज़ू, युँ ही उम्र सारी गुज़र गई
मैं कहाँ-कहाँ न गया मगर, मेरी हर दुआभी सिफ़र गई
...

विनीता तिवारी की दो ग़ज़लें - विनीता तिवारी

भरा ख़ुशियों से है आँगन कि होली आई रे आई।
भिगोया इश्क़ ने तन-मन कि होली आई रे आई।
...

शक के मुंह में | ग़ज़ल - अजहर हाशमी

शक के मुंह में विषदंत होता है, 
शक से रिश्तों का अंत होता है।

 भाव जितना हो दर्द में डूबा,
 गीत उतना रसवंत होता है।

 आचरण जिसका हो बहुत पावन,
 ऐसा व्यक्ति ही संत होता है।

 कोई गाथा ऐसी भी होती है,
 जिसका आदि न अंत होता है। 

 इतने चेहरों को औढ़ लेता है,
 आदमी जब श्रीमंत होता है।

आँख के आँसू जब हो सम्मानित,
 तब समझना बसंत होता है। 

-अजहर हाशमी
...

आने वाले वक़्त के - कंवल हरियाणवी

आने वाले वक़्त के आसार देख
आँख है तो वक़्त के उस पार देख।
...

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