गुड्डा गुड़िया (कथा-कहानी)

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Author: गिजुभाई

एक राजा था । उसकी एक बेटी थी। राजा ने अपनी बेटी का ब्याह एक दूसरे राजा के साथ कर दिया। राजा ने जब राजकुमारी को कहारों के साथ डोली में ससुराल भेजा, तो उसके साथ एक दासी भेजी। रास्तें में दोपहर के समय, डोली वाले कहार खाने-पीने के लिए एक नदी के किनारे रुके। राजकुमारी का नियम था कि वह रोज नहाने के बाद ही भोजन करती थी। इसलिए वह अपनी दासी के साथ नदी पर नहाने गई। इधर राजकुमारी अपने कपड़े उतार नदी में नहाने लगी, उधर दासी राजा की बेटी के कपड़े पहनकर रथ में जा बैठी, और खाना-पीना जल्दी से निपटाकर रथ के साथ आगे बढ़ गई।

जब राजकुमारी नहाकर नदी के बाहर निकली, तो देखा कि वहां उसकी दासी नहीं है। दासी नदी किनारे पर एक फटी-पुरानी साड़ी छोड़ गई थी। बेचारी राजकुमारी यही साड़ी पहनकर ऊपर आई। आकर देखती क्या है कि वहां न तो डोली है और न कहार।

राजा की बेटी रोती-विलखती, गरम धूल पर नंगे पैर चलती, भूखी प्यासी, हैरान-परेशान अपनी ससुराल वाले गॉँव में पहुँच गई। वहां जाकर वह राजमहल में दासी की तरह रहने लगी। अपनी सेवा से उसने राजा को बहुत खुश कर लिया।

एक बार राजा दूसरे गॉँव जाने को निकला । सबने अपने-अपने लिए अलग-अलग चीजें मंगवाई। इस दासी ने एक ‘गुड्डा' और एक ‘गुड़िया' लाने को कहा। जब राजा लौटा, तो दासी के लिए गुड्डा-गुड़िया लेता आया।

रोज रात होने पर दासी अपने कमरे में जाकर गुड्डा-गुड़िया को अपने सामने बैठा लेती, और उनको यह कहानी सुनाया करती :

‘‘गुड्डा-गुड़िया ! तुम सुनते हो ?''
गुड्डा-गुड़िया कहते, ‘‘जी, बाईजी !''
‘‘मैं थी एक राजा की बेटी। मेरा ब्याह हुआ।
"गुड्डा-गुड़िया, तुम सुनते हो ?''
गुड्रडा-गुड़िया, ‘‘जी, बाईजी !''
‘‘फिर मेरे पिता ने मेरे साथ एक दासी भेजी।
गुड्ड़ा-गुड़िया तुम ! सुनते हो ?''
गुड्ड़ा-गुड़िया, ‘‘जी, बाईजी !''
‘‘रास्ते में नदी किनारे बारात कलेवा करने रूकी।
गुड्ड़ा-गुड़िया तुम सुनते हो ?''
गुड्डा-गुड़िया, ‘‘जी, बाईजी ?''
‘‘मेरा नियम था कि मैं नहाकर ही भोजन किया करती थी, इसलिए मैं दासी को साथ लेकर नदी में नहाने गई।
गुड्डा-गुड़िया ! तुम सुनते हो ?''
गुड्डा-गुड़िया, "जी बाईजी !''
‘‘अपने गहने-कपड़े दासी को सौंपकर मैं नहाने लगी।
गुड्डा-गुड़िया तुम सुनते हो ?''
गुड्डा-गुड़िया, ‘‘जी बाईजी !''
‘‘फिर दासी रानी बनकर राजा के महल में आ पहुंची, और मैं पीछे रह गई।
गुड्डा-गुड़िया तुम सुनते हो ?''
गुड्ड़ा-गुड़िया, ‘‘जी, बाईजी !''
‘‘शरम के मारे मैंने यह बात किसी से कही नहीं।
गुड्डा-गुड़िया ! तुम सुनते हो ?''
गुड्डा-गुड़िया, ‘‘जी, बाईजी !''

इस तरह दासी रोज गुड्डे-गुड़िया को अपनी कहानी सुनाया करती। एक दिन राजा दासी के कमरे के पास से निकला, और उसने यह कहानी सुन ली। राजा इसका रहस्य समझ नहीं पाया, इसलिए उसने दासी को बुलाकर उससे मतलब पूछा। दासी ने सारी बात कह सुनायी। अब राजा को पता चला कि सच्ची रानी तो वह है, और वह जो रानी बनकर बैठी है, वह झूठी है।

इसके बाद राजा ने झूठी रानी के कान-नाक कटवाकर उसको गधे पर उल्टा बैठाया और बाहर निकलवा दिया। फिर दासी को अपनी रानी बनाकर राजा उसके साथ रहने लगा।

-गिजुभाई
[ गिजुभाई की लोक-कथाएं ]

 

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