जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।
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गिरमिटिया की पीर - डॉ मृदुल कीर्ति

मैं पीड़ा की पर्ण कुटी में
पीर पुराण भरी गाथा हूँ
गिरमिटिया बन सात समंदर
पार गया वह व्यथा कथा हूँ।
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मातृभाषा प्रेम पर भारतेंदु के दोहे  - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जीवन परिचय | Bharatendu Harishchandra Biography Hindi

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल॥

अँग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन।
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन॥
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सब बुझे दीपक जला लूं - महादेवी वर्मा | Mahadevi Verma

सब बुझे दीपक जला लूं
घिर रहा तम आज दीपक रागिनी जगा लूं!
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स्वदेश - गयाप्रसाद शुक्ल सनेही

वह हृदय नहीं है पत्थर है,
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।
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कैसी लाचारी - अश्वघोष

हाँ! यह कैसी लाचारी
भेड़ है जनता बेचारी
सहना इसकी आदत है--
मुड़ती वहाँ, जहाँ जाती!
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तेरा रूप | षट्पद - गुरुराम भक्त

देखा है प्रत्यंग तुम्हारा, जो कहते थे;
जो सेवक-से साथ सर्वदा ही रहते थे;
जो अपने को बता रहे अवतार तुम्हारा;
जो कुछ हो तुम वही, कहें जो मैं हूँ सारा;
'भक्त' नहीं क्या विषय यह, अद्भुत और अनूप है,
समझ सके वे भी नहीं, कैसा तेरा रूप है !
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इन्द्र-धनुष - मंगलप्रसाद विश्वकर्मा

घुमड़-घुमड़ नभ में घन घोर,
छा जाते हैं चारों ओर
विमल कल्पना से सुकुमार
धारण करते हो आकार!
अस्फुट भावों का प्राणों में,
तुम रख लेते हो गुरु भार!!
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