अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।

बापू का अंतिम दिन - प्यारे लाल

 (विविध) 
Print this  
रचनाकार:

 भारत-दर्शन संकलन | Collections

29 जनवरी को सारे दिन गांधीजी को इतना ज्यादा काम रहा कि दिन के आखिर में उन्हें खूब थकान मालूम होने लगी । काँग्रेस-विधान के मसविदे की तरफ इशारा करते हुए, जिसे तैयार करने की जिम्मेदारी उन्होंने ली थी, उन्होंने आभा से कहा, "मेरा सिर घूम रहा है। फिर भी मुझे इसे पूरा करना ही होगा। मुझे डर है कि रात को देर तक जागना होगा।"

आखिरकार वे 9 बजे रात को सोने के लिए उठे। एक लड़की ने उन्हें याद दिलाया कि आपने हमेशा की कसरत नहीं की है। "अच्छा, तुम कहती हो तो मैं कसरत करूँगा।" --गाँधीजी ने कहा और वे दोनों लड़कियों के कंधो पर, जिमनाशियम के "पैरलल बार की" तरह, शरीर को तीन बार उठाने की कसरत करने के लिए बढ़े।

बिस्तर में लेटने के बाद गांधीजी आमतौर पर अपने हाथ-पाँव और दूँसरे अंग सेवा करने वालो से दबवाते थे--ऐसा करवाने में उन्हें अपना नहीं, बल्कि सेवा करनेवालों की भावनाओं का ही ज्यादा खयाल रहता था। वैसे तो उन्होंने अपने आपको इस बात से एक अरसे से उदासीन बना लिया था, हालाँकि मैं जानता हूँ कि उनके शरीर को इन छोटी-मोटी सेवाओं की जरूरत थी। इससे उन्हें दिनभर के कुचल डालनेवाले काम के बोझ के बाद मन को हलका करनेवाली बातचीत और हँसी-मजाक का थोड़ा मौका मिलता था। अपने मजाक में भी वे हिदायतें जोड़ देते। गुरुवार की रात को वे आश्रम की एक महिला से बातचीत करने लगे, जो संयोग से मिलने आ गई थी। उन्होंने उसकी तन्दुरुस्ती अच्छी न होने के कारण उसे डाँटा और कहा कि अगर रामनाम तुम्हारे मन-मन्दिर में प्रतिष्ठित होता तो तुम बीमार नहीं पड़ती। उन्होंने आगे कहा, "लेकिन उसके लिए श्रद्धा की जरूरत है।"

उसी शाम को प्रार्थना के बाद प्रार्थना सभा में आये हुए लोगों में से एक भाई उनके पास दौड़ता हुआ आया और कहने लगा कि आप 2 फरवरी को वर्धा जा रहे हैं, इसलिए मुझे अपने हस्ताक्षर दे दीजिये। गांधीजी ने पूछा, "यह कौन कहता है?" हस्ताक्षर माँगनेवाले हठी भाई ने कहा, "अखबारों में यह छपा है।" गांधीजी ने हँसते हुए कहा, "मैंने भी गांधी के बारे में वह खबर देखी है, लेकिन मैं नहीं जानता, वह 'गांधी' कौन है?"

एक दूसरे आश्रमवासी भाई से बात करते हुए गांधीजी ने वह राय फिर दोहराई जो उन्होंने प्रार्थना के बाद अपने भाषण में जाहिर की थी-- "मुझे गडबड़ी के बीच शांति, अंधेरे में प्रकाश और निराशा में आशा पैदा करनी होगी।" बातचीत के दौरान में 'चलती लकड़ियों' का जिक्र आने पर गांधीजी ने कहा, "मैं लड़कियों को अपनी 'चलती लकड़ियाँ' बनने देता हूँ, लेकिन दरअसल मुझे उनकी जरूरत नहीं है। मैंने लम्बे समय में अपने आपको इस बात का आदी बना लिया है कि किसी बात के लिए किसी पर निर्भर न रहा जाए। लड़कियाँ अपना पिता समझकर मेरे पास आती है और मुझे घेर लेती है। मुझे यह अच्छा लगता है। लेकिन सच पूछा जाए तो मैं इस बात में बिलकुल उदासीन हूँ।" इस तरह यह छोटी-सी बातचीत तबतक चलती रही जबतक गांधीजी सो न गये।

आठ बजे उनकी मालिश का वक्त था। मेरे कमरे से गुजरते हुए उन्होंने काँग्रेस के नये विधान का मसविदा मुझे दिया, जो देश के लिए उनका 'आखिरी वसीयतनामा' था। इसका कुछ हिस्सा उन्होंने पिछली रात को तैयार किया था। मुझसे उन्होंने कहा कि इसे 'पूरी' तरह दोहरा लो। इसमें कोई विचार छूट गया हो तो उसे लिख डालो, क्योंकि मैंने इसे बहुत थकावट की हालत में लिखा है।

मालिश के बाद मेरे कमरे से निकलते हुए उन्होंने पूछा, "उसे पूरा पढ़ लिया या नहीं।" और मुझसे कहा कि नोआखाली के अपने अनुभव और प्रयोग के आधार पर मैं इस विषय में एक टिप्पणी लिखूँ कि मद्रास के सिर पर झूमते हुए अन्नसंकट का किस तरह सामना किया जा सकता है। उन्होंने कहा--"वहाँ का खाद्यविभाग हिम्मत छोड़ रहा है। मगर मेरा खयाल है कि मद्रास जैसे प्रान्त में, जिसे कुदरत ने नारियल, ताड़, मूँगफली और केला इतनी ज्यादा तादाद में दिए हैं-- कई किस्म की जड़ों और कंदों की बात ही जाने दो-- अगर लोग सिर्फ अपनी खाद्य-सामग्री का सम्हालकर उपयोग करना जानें, तो उन्हें भूखों मरने की जरूरत नहीं।" मैंने उनकी इच्छा के अनुसार टिप्पणी तैयार करने का वचन दिया। इसके बाद वे नहाने चले गये। जब वे नहाकर लौटे तब उनके बदन पर काफी ताजगी नजर आती थी। पिछली रात की थकावट मिट गई थी और हमेशा की तरह प्रसन्नता उनके चेहरे पर चमक रही थी। उन्होंने आश्रम की लड़कियों को उनकी कमजोर शारीरिक बनावट के लिए डाँटा। जब किसी ने उनसे कहा कि वाहन न मिलने के कारण अमुक जगह नहीं गईं, तो उन्होंने कड़ाई से कहा--"वह पैदल क्यों न चली गई?" गांधीजी की यह कड़ाई कोरी कड़ाई ही नहीं थी, क्योंकि मुझे याद है कि एक बार जब आंध्र के अपने एक दौरे में हमें ले जानेवाली मोटरों का पेट्रोल खत्म हो गया तो उन्होंने सारे कागजात और लकड़ी की हलकी पेटी लेकर वहाँ से 13 मील दूँर दूसरे स्टेशन तक पैदल जाने के लिए तैयार होने को हमसे कहा था।

बंगाली लिखने के अपने रोजाना के अभ्यास को पूरा करने के बाद गांधीजी ने साढ़े नौ बजे अपना सवेरे का भोजन किया। अपनी पार्टी को तितर-बितर करने के बाद वे पूर्व बंगाल के गांवों में अपनी 'करो या मरो' की प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए नंगे पाँव श्रीरामपुर गये तबसे वे नियमित रूप से बंगाली का अभ्यास करते रहे है। जब मैं विधान के मसविदे को दोहराने के बाद उनके पास ले गया, तब वे भोजन कर रहे थे। उनके भोजन में ये-ये चीजें शामिल थी--बकरी का दूँध, पकाई हुई और कच्ची भाजियां, संतरे और अदरक का काढ़ा, खट्टे नींबू और घृतकुमारी। उन्होंने अपनी विशेष सतर्कता से मसविदे में बढ़ाई हुई और बदली हुई बातों को एक-एक करके देखा और पंचायती नेताओं की संख्या के बारे में जो गलती रह गई थी, उसे सुधारा।

इसके बाद मैंने गांधीजी को डाक्टर राजेन्द्रप्रसाद से हुई अपनी मुलाकात की विस्तृत रिपोर्ट दी। डाक्टर राजेन्द्रप्रसाद की तबीयत अच्छी न थी। इसीलिए गांधीजी ने कल उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछने के लिए उनके पास भेजा था। मैंने गांधीजी को पूर्वी बंगाल के बारे में ताजी-से-ताजी खबर भी सुनाई, जो मुझे डाक्टर श्यामाप्रसाद मुकर्जी ने कल शाम को बताई थी। इसपर से नोआखाली के बारे में चर्चा चली। मैंने उनके सामने व्यवस्थित रीति से नोआखाली छोड़ने की बात रखी लेकिन गांधीजी का दृष्टिकोण साफ और मजबूत था। उन्होंने कहा, "जैसे हम कार्यकर्ताओं को 'करना या मरना' है, उसी तरह हमें अपने लोगों को भी आत्म-सम्मान, इज्जत और मजहबी हक को बचाने के लिए 'करने या मरने' को तैयार करना है। हो सकता है कि आखिर में थोड़े ही लोग बचें, लेकिन कमजोरी से ताकत पैदा करने का इसके सिवा दूसरा कोई रास्ता नहीं है। क्या हथियारों को लड़ाई में भी बलवा करनेवाले या कमजोर सिपाहियों की कतारें मार नहीं दी जातीं? तब अहिंसक लड़ाई में इससे दूसरा कैसे हो सकता है ?" उन्होंने आगे कहा, "तुम नोआखाली में जो कुछ कर रहे हो, वही सही रास्ता है। तुमने मौत का डर भगा दिया है और लोगों के दिलों में अपना स्थान बनाकर उनका प्यार पा लिया है। प्यार और परिश्रम के साथ ज्ञान जोड़ना जरूरी है। तुमने यही किया है। अगर तुम अकेले भी अपना काम पूरी तरह और अच्छी तरह करो, तो तुम्हीं सबके लिए काफी हो। तुम जानते हो कि यहाँ मुझे तुम्हारी बड़ी जरूरत है। मुझपर काम का इतना बोझ है और मैं बहुत-कुछ दुनिया को भी देना चाहता हूँ, तुम्हारे बाहर रहने से मैं ऐसा नहीं कर सकता। लेकिन मैंने अपने आपको इसके लिए कड़ा बना लिया है। नोआखाली का तुम्हारा काम इससे ज्यादा महत्व का है।" इसके बाद उन्होंने मुझे बताया कि अगर सरकार अपना फर्ज पूरा करने में चूके, तो गुंडों के साथ कैसे निपटना चाहिए।

दोपहर को थोड़ी झपकी लेने के बाद गांधीजी श्री सुधीर घोष से मिले। श्री घोष ने और बातों के अलावा 'लन्दन टाइम्स' की कतरन और एक अँग्रेज़ दोस्त के खत के कुछ हिस्से पढ़कर उन्हें सुनाये। इनमें लिखा था कि किस तरह कुछ लोग बड़ी तत्परता के साथ पण्डित नेहरू और सरदार पटेल के बीच फूट डालने की कोशिश कर रहे है। वे सरदार पटेल पर फिरकापरस्त होने का दोष लगाते है और पण्डित नेहरूजी की तारीफ करने का ढोंग रचते है। गांधीजी ने कहा कि वे इस तरह की हलचल से वाकिफ है और उसपर गहराई से विचार कर रहे है। वे बोले कि अपने एक प्रार्थना सभा के भाषण में पहले ही इसके बारे में कह चुका हूँ, जो 'हरिजन' में छप गया है। मगर मुझे लगता है कि इसके लिए कुछ और ज्यादा करने की जरूरत है। मैं सोच रहा हूँ कि मुझे क्या करना चाहिए।

सारे दिन लोग लगातार मुलाकात करने के लिए आते रहे। उनमें दिल्ली के मौलाना लोग भी थे। उन्होंने गांधीजी के वर्धा जाने के बारे में अपनी सम्मति दे दी। गांधीजी ने उनसे कहा कि मैं सिर्फ थोड़े दिनों के लिए ही यहाँ से गैरहाजिर रहूँगा और अगर भगवान की कुछ और ही मर्जी न हुई और कोई आकस्मिक घटना न घटी तो 11 तारीख को वर्धा में स्वर्गीय सेठ जमनालालजी की पुण्यतिथि मनाने के बाद 14वीं तारीख को में लौट जाऊँगा।

एक बात और थी, जिसके बारे में मुझे गांधीजी से सलाह लेनी थी। मैंने उनसे पूछा, "बापू, मुसलमान औरतों में अपने काम को आसानी से चलाने के लिए अगर ज्यादा नहीं तो थोड़े ही वक्त के लिए मैं ----को नोआखाली ले आऊँ? जरूरी छुट्टी के लिए आपसे प्रार्थना करूँगा।"   "खुशी से।"--उन्होंने जवाब दिया। आखिरी शब्द ये थे जो मुझे सुनने थे।

साढ़े चार बजे आभा उनका शाम का खाना लाई। इस धरती पर उनका यह आखिरी भोजन था, जिसमें करीब-करीब सवेरे की ही सब चीज़ें शामिल थी। उनकी आखिरी बैठक सरदार पटेल के साथ हुई। जिन विषयों पर चर्चा हुई, उनमें से एक मंत्रिमंडल की एकता को तोड़ने के लिए सरदार के खिलाफ किया जानेवाला गंदा प्रचार था। गांधीजी की यह साफ राय थी कि हिन्दुस्तान के इतिहास में ऐसे नाजुक मौके पर मंत्रिमंडल में किसी तरह की फूट पैदा होना बड़ी दुःखपूर्ण बात होगी। सरदार से उन्होंने कहा कि आज मैं इसीको अपनी प्रार्थना सभा के भाषण का विषय बनाऊँगा। प्रार्थना के बाद पण्डितजी मुझसे मिलेंगे, उनसे भी इसके बारे में चर्चा करूँगा। आगे चलकर उन्होंने कहा, "अगर जरूरी हुआ तो मैं 2 तारीख को वर्धा जाना मुल्तवी कर दूँगा और तबतक दिल्ली नहीं छोड़ूँगा जबतक दोनों के बीच फूट डालने की कोशिश के इस भूत का पूरी तरह खात्मा न कर दूँ।"

इस तरह चर्चा चलती रही। बेचारी आभा भी दूध देने का साहस नहीं कर रही थी। इस बात को जानते हुए कि बापू वक्त की पाबन्दी को और खासकर प्रार्थना के बारे में उसकी पाबन्दी को, कितना महत्व देते है, उसने आखिर में निराश होकर उनकी घड़ी उठाई और जैसे इस बात का इशारा करते हुए उनके सामने रख दी कि प्रार्थना में देर हो रही है।

प्रार्थना के मैदान में जाने के पहले ज्योंही गांधीजी गुसलखाने में जाने के लिए उठे, वे बोले, "अब मुझे आपसे अलग होना पड़ेगा।" रास्ते में वे उस शाम को अपनी 'चलती लकड़ियों'--आभा और मनु के साथ तबतक हँसते और मज़ाक करते रहे जबतक कि वे प्रार्थना के मैदान की सीढ़ियों पर नहीं पहुंच गये।

दिन में जब दोपहर के पहले आभा गांधीजी के लिए कच्ची गाजरों का रस लाई, तब उन्होंने उलाहना देते हुए कहा, "तो तुम मुझे ढोरों का खाना खिलाती हो।" आभा ने जवाब दिया, "बा तो इसे 'घोड़े की खुराक' कहती थी।" उन्होंने पूछा, "जिस चीज को दूसरा पूछेगा भी नहीं, उसे स्वाद से खाना क्या कम चीज है ?" और हँसने लगे।

आभा ने कहा-"बापू, आपकी घड़ी को जरूर यह लगता होगा कि आप उसकी परवाह नहीं करते। आप उसकी तरफ देखते नहीं।" गांधीजी ने तुरन्त जवाब दिया--"मैं क्यो देखूँ, जब तुम दोनों मुझे ठीक समय बता देती हो?" लड़कियों में से एक ने पूछा, "लेकिन आप तो समय बतानेवाली लड़कियों की तरफ नहीं देखते।"

बापू फिर हँसने लगे। पाँव साफ करते हुए, उन्होंने आखिरी बात कही, "मैं आज 10 मिनट देर से पहुँचा हूँ। देर से आने में मुझे नफरत होती है। मैं प्रार्थना की जगह पर ठीक पाँच बजे पहुँचना पसंद करता हूँ।" यहाँ बातचीत खतम हो गई। क्योंकि--'चलती लकड़ियों' के साथ गांधीजी की यह शर्त थी कि प्रार्थना के मैदान के अहाते में पहुंचते ही सारा मज़ाक और बातचीत बन्द हो जानी चाहिए--मन में प्रार्थना के विचारो के सिवा दूसरी कोई चीज नहीं होनी चाहिए। मन प्रार्थनामय हो जाना चाहिए।

अब गांधीजी प्रार्थना-सभा के बीच रस्सियो से घिरे रास्ते में चलने लगे। उन्होंने प्रार्थना में शामिल होने वाले लोगों के नमस्कारों का जवाब देने के लिए लड़कियों के कन्धों से अपने हाथ उठा लिये । एकाएक भीड में से कोई दाहिनी ओर से भीड़ को चीरता हुआ उस रास्ते पर आया। मनु ने यह सोचा कि वह आदमी बापू के पाँव छूने को आगे बढ़ रहा है। इसलिए उसने उसको ऐसा करने के लिए झिड़का, क्योंकि प्रार्थना में पहले ही देर हो चुकी थी। उसने रास्ते में आने वाले आदमी का हाथ पकड़कर उसे रोकने की कोशिश की। लेकिन उसने जोर से मनु को धक्का दिया, जिससे उसके हाथ की आश्रम-भजनावली, माला और बापू का पीकदान नीचे गिर गये। ज्योंही वह बिखरी हुई चीज़ों को उठाने के लिए झुकी, वह आदमी बापू के सामने खड़ा हो गया--इतना नजदीक खड़ा था कि पिस्तौल से निकली हुई गोली का खोल बाद में बापू के कपड़े की परत में उलझा हुआ मिला। सात कारतूसों वाले ऑटोमैटिक पिस्तौल से जल्दी-जल्दी तीन गोलियां छूटीं। पहली गोली नाभी से ढाई इँच ऊपर और मध्य रेखा से साढ़े तीन इँच दाहिनी तरफ पेट की बाजू में लगी। दूसरी गोली, मध्य-रेखा से एक इँच की दूरी पर दाहिनी तरफ घुसी और तीसरी गोली छाती की दाहिनी तरफ लगी। पहली और दूसरी गोली शरीर को पारकर पीठ से बाहर निकल आई। तीसरी गोली उनके फेफड़े में ही रुकी रही। पहले बार में उनका पाँव, जो गोली लगने के वक्त आगे बढ़ रहा था, नीचे आ गया। दूसरी गोली छोड़ी गई तबतक वे अपने पाँवों पर ही खड़े थे, उसके बाद वे गिर गये। उनके मुंह से आखिरी शब्द "हे राम" निकले। उनका चेहरा राख की तरह सफेद पड़ गया। उनके सफेद कपड़ों पर गहरा सुर्ख धब्बा फैलता हुआ दिखाई पड़ा। उनके हाथ, जो सभा को नमस्कार करने के लिए उठे थे, धीरे-धीरे नीचे आ गये, एक हाथ आभा के गले में अपनी स्वाभाविक जगह पर गिरा। उनका लड़खड़ाता हुआ शरीर धीरे से ढुलक गया। घबराई हुई मनु और आभा ने महसूस किया कि क्या हो गया है।

मैं दूसरे दिन नोआखाली जाने की अपनी तैयारी पूरी करने के लिए शहर गया था और वहाँ से हाल में ही लौटा था। प्रार्थना सभा के मैदान तक बनी हुई पत्थर की कमानी के नीचे भी मैं न पहुँच पाया कि श्री चन्द्रावत सामने से दौड़ते हुए आये। उन्होंने चिल्लाकर कहा,"डाक्टर को फोन करो। बापू को गोली मार दी गई है।" मैं पत्थर की तरह जहां-का-तहां खड़ा रह गया, जैसे बुरा सपना देखा हो। मशीन की तरह मैंने किसीके द्वारा डाक्टर को फोन करवाया।

हरएक को इस घटना से धक्का लगा। डा० राज सब्बरवाल ने, जो उनके पीछे आई, गांधीजी के सिर को धीरे से अपनी गोद में रख लिया। उनका काँपता हुआ शरीर डाक्टर के सामने आधा लेटा हुआ था और आखें अधमुँदी थी। हत्यारे को बिड़ला-भवन के माली ने मजबूती से पकड़ लिया था। दूसरों ने भी उसका साथ दिया और थोड़ी खींचतान के बाद उसे काबू में कर लिया। बापू का शांत और ढीला पड़ा हुआ शरीर दोस्तों के द्वारा अन्दर ले जाया गया और उस चटाई पर उसे रखा गया, जिसपर बैठकर वे काम किया करते थे। मगर कुछ इलाज करने से पहले ही घड़ी की आवाज बन्द हो चुकी थी। उन्हें भीतर लाने के बाद उनको जो छोटा चम्मच भर शहद और गरम पानी पिलाया गया उसे भी वे पूरी तरह निगल न सके। करीब-करीब फौरन ही उनका अवसान हो गया।

डा० सुशीला बहावलपुर गई थी, जहाँ बापू ने उन्हें दया के मिशन पर भेजा था। डा० भार्गव, जिन्हें बुलावा भेजा था, आये और एड्रेनलिन के लिए डा० सुशीला की संकट के समय काम में आने वाली दवाइयों का संदूक पागल की तरह तलाश करने लगे। मैंने उनसे दलील की कि वे उस दवाई को ढूंढने की मेहनत न उठाये, क्योंकि गांधीजी ने कई बार हमसे कहा है कि उनकी जान बचाने के लिए भी कोई निषिद्ध दवाई उनको न दी जाए। जैसे-जैसे बरस बीतते गये, उन्हें ज्यादा विश्वास होता गया कि सिर्फ रामनाम ही उनकी और दूसरों की सारी बीमारियों को दूर कर सकता है। थोड़े ही दिनों पहले अपने उपवास के दरमियान उन्होंने यह सवाल पूछकर साइंस की कमियों के बारे में अपने मत को पक्का कर दिया था कि गीता में जो यह कहा गया है 'एकांशेन स्थितो जगत्'--उसके एक अंश से सारा संसार टिका हुआ है--उसका क्या मतलब है? रामनाम की सब बीमारियों को दूर करने की शक्ति पर अपने विश्वास के बारे में बोलते हुए एक आह के साथ गांधीजी ने घनश्यामदासजी से कहा था, "अगर मैं इसे अपने जीते-जी साबित नहीं कर सकता, तो वह मौत के साथ ही खत्म हो जाएगा।" जैसाकि आखिर में हुआ, डा० सुशीला की संकटकालीन दवाइयो में एड्रेनलिन नहीं मिला। संयोग से एड्रेनलिन की जो एक मात्र शीशी सुशीला ने कभी ली थी वह नोआखाली के काजिरखिल कैम्प में टूट गई थी। गांधीजी उसकी इतनी कम परवाह करते थे।

उनके साथियों में सबसे पहले सरदार वल्लभभाई पटेल आये। वे गांधीजी के पास बैठे और नाड़ी देखकर उन्होंने खयाल कर लिया कि वह अब भी धीरे-धीरे चल रही है। डा० जीवराज मेहता कुछ मिनट बाद पहुंचे। उन्होंने नाड़ी और आँखों की परीक्षा की और उदास और दुखी होकर सिर हिलाया। लड़कियाँ सिसक उठी लेकिन उन्होंने तुरन्त दिल को कड़ा किया और रामनाम बोलने लगी। मृत शरीर के पास सरदार चट्टान की तरह अचल बैठे थे। उनका चेहरा उदास और पीला पड़ गया था। इसके बाद पंडित नेहरू आये और बापू के कपड़ों में अपना मुंह छिपाकर बच्चे की तरह सिसकने लगे। इसके बाद देवदास आये। तब बापू के पुराने रक्षकों में से बचे हुए श्री जयरामदास, राजकुमारी अमृतकौर, आचार्य कृपलानी आये। कुछ देर बाद लॉर्ड माउण्टबेटन आये, तबतक बाहर लोगों की भीड़ इतनी बढ़ गई थी कि वे बड़ी मुश्किल से अन्दर आ सके। कड़े दिल के योद्धा होने के कारण उन्होंने एक पल भी नहीं गवाया और वे पंडित नेहरू और मौलाना आजाद को दूसरे कमरे में ले गये और महान दुर्घटना से पैदा होनेवाले समस्याओं पर अपने राजनैतिक दिमाग से विचार करने लगे। एक सुझाव यह रखा गया कि मृत शरीर को मसाला, देकर कुछ समय के लिए सुरक्षित रखा जाए, लेकिन इस बारे में गांधीजी के विचार इतने साफ और मजबूत थे कि बीच में पड़ना मेरे लिए जरूरी और पवित्र कर्तव्य हो गया। मैंने उनसे कहा कि बापू मरने के बाद पार्थिव शरीर को पूजने का कड़ा विरोध करते थे। उन्होंने मुझे कई बार कहा था, "अगर तुम मेरे बारे में ऐसा, होने दोगे तो मैं मौत में भी कोसूँगा। मैं जहाँ कहीं मरू, मेरी यह इच्छा है कि बिना किसी दिखावे या झमेले के मेरा दाह-संस्कार किया जाए।" डा० राजेन्द्र प्रसाद, श्री जयरामदास और डा० जीवराज मेहता ने मेरी बात का समर्थन किया। इसलिए मृत शरीर को मसाला देकर रखने का विचार छोड़ दिया गया। बाकी रात गीता के श्लोक और सुखमणि साहब के भजन मीठे राग में गाये जाते रहे और बाहर दुख से पागल बने लोगों की भीड़ दर्शन के लिए कमरे के चारों तरफ इकट्ठी होती रही। आखिरकार मृत शरीर को ऊपर ले जाकर बिड़ला-भवन के छज्जे पर रखना पड़ा, ताकि सब लोग दर्शन कर सकें।

सुबह जल्दी ही शरीर को हिन्दू-विधि के अनुसार नहलाया गया और कमरे के बीच में फूलों से ढककर रख दिया गया। विदेशी राजदूत, सुबह थोड़ी देर बाद आये और उन्होंने बापू के चरणों पर फूलों की मालाएँ रखकर अपनी मौन श्रद्धांजलि अर्पित की।

अवसान के दो दिन पहले ही गांधीजी ने कहा था, "मेरे लिए इससे प्यारी चीज क्या हो सकती है कि मैं हँसते-हँसते गोलियों की बौछार का सामना कर सकूँ?" और मालूम होता है, भगवान् ने उन्हें यह वरदान दे दिया।

11 बजे हमारे सबके अन्तिम प्रणाम करने के बाद मृत शरीर अर्थी पर रखा गया। उस समय तक रामदास गांधी हवाई जहाज द्वारा नागपुर से आ पहुँचे थे। डा० सुशीला नायर सबसे आखिर में पहुँची, जब अर्थी रवाना होने वाली थी। उन्हें इस बात का बड़ा दुख था कि बापू के आखिरी समय में वह उनके पास नहीं रह सकी लेकिन इस बात के लिए उन्होंने ईश्वर को धन्यवाद दिया कि वह अन्तिम दर्शन के समय पहुँच गईं।

उस रात डा० सुशीला बार-बार बहुत दुखी होकर चिल्लाती रही, "आखिर मुझे यह सजा क्यों?" देवदास ने उन्हें आश्वासन देने की कोशिश की "यह सजा नहीं है। बापू के आखिरी मिशन को पूरा करने में जुटे रहना बड़े गौरव की बात है--यह बापू का उसीको सौंपा हुआ आखिरी काम था।" बापू की यह एक विशेषता थी कि जिन्हें उन्होंने बहुत दिया था, उनसे वे और ज्यादा की आशा रखते थे।

जब मैं बापू का अपार शांति, क्षमा, सहिष्णुता और दया से भरा आँचल और उदास चेहरा ध्यान से देखने लगा, तो मेरे दिमाग में उस समय से लेकर जब मैं कालेज के विद्यार्थी रूप में चौंधियाने वाले सपनों और उज्ज्वल आशाओं से भरा बापू के पास आकर उनके चरणों में बैठा था--आजतक के 28 लम्बे वर्षों के निकटतम और अटूट सम्बन्ध का पूरा दृश्य बिजली की गति से घूम गया और वे वर्ष कौम के बोझ से कितने लदे हुए थे।

जो कुछ हुआ था, उसके अर्थ पर मैं विचार करने लगा। पहले मैं घबराहट महसूस करने लगा, लेकिन बाद में धीरे-धीरे यह पहेली अपने आप सुलझने लगी। उस दिन जब बापू ने एक आदमी के भी अपना फर्ज पूरी और अच्छी तरह अदा करने के बारे में कहा था, मुझे ताज्जुब हुआ था कि आखिर उनके कहने का ठीक-ठीक मतलब क्या है? उनकी मृत्यु ने उसका जबाव दे दिया। पहले जब गांधीजी उपवास करते तो वे दूसरों से प्रार्थना करने के लिए कहते थे। वे कहा करते थे, "जबतक पिता बच्चों के बीच है तबतक उन्हें खेलना और खुशी से उछलना-कूदना चाहिए। जब मैं चला जाऊँगा तब आज मैं जो कुछ कर रहा है वह सब वे करेंगे।" मगर--- बापू ने जो आजादी हमारे लिए जीती है, यदि उसका फल हमें भोगना है, तो उनकी मौत ने हमें वह रास्ता दिखा दिया है, जिस पर हमें चलना है।

-प्यारेलाल
[गांधी-श्रद्धांजलि-ग्रंथ, संपादक - सर्वपल्ली राधाकृष्णन, सत्साहित्य-प्रकाशन, 1955]
Back
 
Post Comment
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश