अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की ग़ज़ल

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra

आ गई सर पर क़ज़ा लो सारा सामाँ रह गया ।
ऐ फ़लक क्या क्या हमारे दिल में अरमाँ रह गया ॥

बाग़बाँ है चार दिन की बाग़े आलम में बहार ।
फूल सब मुरझा गए ख़ाली बियाबाँ रह गया ॥

इतना एहसाँ और कर लिल्लाह ऐ दस्ते जनूँ ।
बाक़ी गर्दन में फ़कत तारे गिरेबाँ रह गया ॥

याद आई जब तुम्हारे रूए रौशन की चमक ।
मैं सरासर सूरते आईना हैराँ रह गया ॥

ले चले दो फूल भी इस बाग़े आलम से न हम ।
वक़्त रेहलत हैफ़ है खाली हि दामाँ रह गया ॥

मर गए हम पर न आए तुम ख़बर को ऐ सनम ।
हौसला सब दिल का दिल ही में मेरी जाँ रह गया ॥

नातवानी ने दिखाया ज़ोर अपना ऐ 'रसा' ।
सूरते नक्शे क़दम मैं बस नुमायाँ रह गया ।


-भारतेन्दु हरिश्चन्द्र 'रसा'
[ भारतेन्दु की स्फुट कविताएं, भारतेन्दु ग्रंथावली]

 

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