अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।

जी रहे हैं लोग कैसे | ग़ज़ल

 (काव्य) 
Print this  
रचनाकार:

 उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans

जी रहे हैं लोग कैसे आज के वातावरण में,
नींद में दु:स्वप्न आते, भय सताता जागरण में।

बेशरम जब आँख हो तो सिर्फ घूंघट क्या करेगा ?
आदमी नंगा खड़ा है सभ्यता के आवरण में ।

घोर कलियुग है कि दोनों राम-रावण एक-से हैं,
लक्ष्मणों का हाथ रहता आजकल सीता-हरण में ।

दंभ के माथे मुकुट है, साधना की माँग सूनी,
कोयलें सिर धुन रही हैं, बैठ कौवों की शरण में ।

शब्द नारे बन चुके हैं, अर्थ घोर अनर्थ करते,
'संधि' कम 'विग्रह' अधिक है जिन्दगी के व्याकरण में ।

आधुनिक युगबोध ने साहित्य का है रूप बदला,
गद्य केवल छप रहा है, गीत के हर संस्करण में ।

जल रहे ईर्ष्या से जुगनू देख यौवन चाँदनी का,
ढूंढते हैं दोष बगुले 'हंस' के हर आचरण में ।


- उदयभानु 'हंस' राजकवि हरियाणा
साभार-दर्द की बांसुरी [ग़ज़ल संग्रह]

Back
 
Post Comment
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश