धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 गोपालदास ‘नीरज’

दिए से मिटेगा न मन का अँधेरा,
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ !

बहुत बार आई-गई यह दिवाली
मगर तम जहाँ था वहीं पर खड़ा है,
बहुत बार लौ जल-बुझी पर अभी तक
कफन रात का हर चमन पर पड़ा है,
न फिर सूर्य रूठे, न फिर स्वप्न टूटे
ऊषा को जगाओ, निशा को सुलाओ !
दिए से मिटेगा न मन का अँधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ !

सृजन शांति के वास्ते है जरूरी
कि हर द्वार पर रोशनी गीत गाए
तभी मुक्ति का यज्ञ यह पूर्ण होगा,
कि जब प्यार तलवार से जीत जाए,
घृणा बढ़ रही है, अमा चढ़ रही है,
मनुज को जिलाओ, दनुज को मिटाओ!
दिए से मिटेगा न मन का अँधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ !

बड़े वेगमय पंख हैं रोशनी के
न वह बंद रहती किसी के भवन में,
किया क़ैद जिसने उसे शक्ति छल से
स्वयं उड़ गया वह धुँआ बन पवन में,
न मेरा-तुम्हारा सभी का प्रहर यह
इसे भी बुलाओ, उसे भी बुलाओ !
दिए से मिटेगा न मन का अँधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ !

मगर चाहते तुम कि सारा उजाला,
रहे दास बनकर सदा को तुम्हारा,
नहीं जानते फूस के गेह में पर
बुलाता सुबह किस तरह से अंगारा,
न फिर अग्नि कोई रचे रास इससे
सभी रो रहे आँसुओं को हँसाओ !
दिए से मिटेगा न मन का अँधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ !

- गोपालदास 'नीरज'

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