इंटरनेट नहीं जानते तो साहित्यकार नहीं!

 (विविध) 
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रचनाकार:

 रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

क्या इंटरनेट और फेसबुक जानने-समझने वाले ही हिंदी साहित्यकार हैं? सरकार की माने तो ऐसा ही लगता है। क्योंकि यदि किसी साहित्यकार अथवा हिन्दी प्रेमी को हिन्दी सम्मेलन में शिरकत करना है तो उसे अनिवार्य रूप से ऑनलाइन आवेदन भरना होगा। इसके बिना वह सम्मेलन में हिस्सेदारी नहीं कर पाएगा।


उल्लेखनीय है कि 10 से 12 सितंबर तक मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में विश्व  हिन्दी सम्मेलन आयोजित होने वाला है। यह भी ध्यान रखने वाली बात है कि भारत की इंटरनेट उपभोक्ता की प्रति व्यक्ति दर केवल 19.19 प्रतिशत है (उसमें से भी अधिकतर मोबाइल उपभोक्ता हैं)। 

 
ऐसे में कुछ लोगों की पीड़ा है कि सरकार द्वारा हिंदी सम्मेलन में ऑनलाइन आवेदन भरना अनिवार्य कर देने का अर्थ क्या है? निश्चित ही इस मामले में सरकारी अधिकारियों को विचार करना चाहिए। मगर सवाल यह है कि क्या वे ऐसा कर रहे हैं?
 
क्या नागार्जुन जीवित होते और इस सम्मेलन में आना चाहते तो भर पाते ये ऑनलाइन फॉर्म? क्या भारत, फीजी और अन्य देशों में बसे बुजुर्ग हिंदी लेखक इंटरनेट का उपयोग कर रहे हैं? सच जानिए...धरती पर रहने वाले बहुत से साहित्यकारों को तो इस सम्मेलन का पता ही नहीं है। 
 
क्या देहात व कस्बों में बसकर हिंदी साहित्य का सृजन करने वाले व इंटरनेट का उपयोग न करने वाले साहित्यकारों का हिंदी के विकास में कोई योगदान नहीं? वे कैसे साझेदारी करेंगे? या हमें उनकी आवश्यकता ही नहीं है! क्या यह मान लिया जाए कि वे कागज के आवेदन पत्र बंद होने के साथ ही 'अमान्य' हो गए हैं।
 
एक सीधे-सादे पूर्णतया आत्मनिर्भर शिक्षित हिंदी लेखक जो इंटरनेट नहीं जानता को यह अहसास दिलाना कि वह आत्मनिर्भर नहीं है। क्या अब वो और लोगों से अपना ‘ऑनलाइन फॉर्म’ भरवाए और अपनी निजी सूचनाएं किसी अंजान से साझा करे या किसी के आगे गिड़गिड़ाए? जबकि साइबर अपराध बड़ी तीव्र गति से भारत में अपने पांव जमा रहा है।

भारत में 2014 में लगभग 1.5 लाख साइबर अपराध पंजीकृत किए गए थे और 2015 के अंत तक इनकी अनुमानित संख्या 3 लाख बताई गई है। हालांकि फिलहाल तो स्थिति यह है कि ऑनलाइन फॉर्म भी वेबसाइट पर नहीं खुल रहा है। संबंधित लिंक पर क्लिक करते ही 'एरर' आ जाता है। 
 
'ऑनलाइन फॉर्म' का प्रावधान तब शोभनीय होता यदि पूरे भारत में कम्प्यूटर साक्षरता हो गई होती। इस समय यह 'तुगलकीय फ़रमान' से अधिक कुछ नहीं।
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