अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।

मैं दिल्ली हूँ | एक

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi

मैं दिल्ली हूँ मैंने कितनी, रंगीन बहारें देखी हैं ।
अपने आँगन में सपनों की, हर ओर कितारें देखीं हैं ॥

मैंने बलशाली राजाओं के, ताज उतरते देखे हैं ।
मैंने जीवन की गलियों से तूफ़ान गुज़रते देखे हैं ॥

देखा है; कितनी बार जनम के, हाथों मरघट हार गया ।
देखा है; कितनी बार पसीना, मानव का बेकार गया ॥

मैंने उठते-गिरते देखीं, सोने-चाँदी की मीनारें ।
मैंने हँसते-रोते देखीं, महलों की ऊँची दीवारें ॥

गर्मी का ताप सहा मैंने, झेला अनगिनत बरसातों को ।
मैंने गाते-गाते काटा जाड़े की ठंडी रातों को ॥

पतझर से मेरा चमन न जाने, कितनी बार गया लूटा ।
पर मैं ऐसी पटरानी हूँ, मुझसे सिंगार नहीं रूठा ॥

आँखें खोली; देखा मैंने, मेरे खंडहर जगमगा गए ।
हर बार लुटेरे आ-आकर, मेरी क़िस्मत को जगा गए ॥

मुझको सौ बार उजाड़ा है, सौ बार बसाया है मुझको ।
अक्सर भूचालों ने आकर, हर बार सजाया है मुझको ॥

यह हुआ कि वर्षों तक मेरी, हर रात रही काली-काली ।
यह हुआ कि मेरे आँगन में, बरसी जी भर कर उजियाली ।।

वर्षों मेरे चौराहों पर, घूमा है ज़ालिम सन्नाटा ।
मुझको सौभाग्य मिला मैंने, दुनिया भर को कंचन बाँटा ।।

 

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