देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।

कवि का चुनाव

 (कथा-कहानी) 
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रचनाकार:

 सुदर्शन | Sudershan

[ 1 ]

चांद और सूरज के प्रिय महाराज ने अपने नौजवान मंत्री से कहा- ''हमें अपने दरबार के लिए एक कवि की ज़रूरत है, जो सचमुच कवि हो।"

दूसरे दिन नौजवान मंत्री ने नगर में मुनादी करा दी। तीसरे दिन एक हज़ार एक आदमी मंत्री के महल के नीचे खड़े थे, और कहते थे, हम सब कवि है। मंत्री ने इक्कीस दिनों में उन सबकी कविताएँ सुनी और देखा कि वह सबकी सब सुन्दर शब्दों और रसीले भावों से भरी थी और उनमें मधु की मिठास थी, और यौवन की शोभा थी, और मदभरी उपमाएं थी, और मन को मोह लेने वाले अलंकार थे।

मगर उनमें सर्वश्रेष्ठ कौन है, नौजवान मंत्री इसका फ़ैसला न कर सका। उसने एक दिन सोचा, दो दिन सोचा, तीन दिन सोचा, चौथे दिन उसने फूल की पंखुरियो के काग़ज़ पर सुनहरे रंग से एक हज़ार एक कवियों के नाम लिखे, और यह सुनाम-सूची महाराज की सेवा में उपस्थित कर दी।

महाराज को हैरानी हुई। बोले- ''क्या यह सब कवि हैं?"

मंत्री ने विनय से सिर झुकाया, और धीरे से जवाब दिया- ''मैंने उनकी कृतियाँ सुनी हैं, और इसके बाद यह नामावली तैयार की है। मगर हमें एक कवि की जरूरत है, और यह एक हज़ार एक हैं। मैं चुनाव नहीं कर सका।''

महाराजा ने एक घन्टा विचार किया, दो घंटे विचार किया, तीन घंटे विचार किया, चौथे घंटे आज्ञा दी- "इन सबको क़ैद कर दो, इनसे कोल्हू चलवाओ, और हुक्म दे दो, कि अब से जो आदमी कविता करेगा, उसे हमारे शहर का सबसे बलवान आदमी कोडे मार-मारकर जान से मार डालेगा।"

मंत्री ने आज्ञा का पालन किया--अब वहां एक भी कवि न था, न कोई काव्य की चर्चा करता था। लोग उन अभागो के संकट की कहानियां, सुनते थे, और उनके हाल पर अफ़सोस करते थे।


[ 2 ]

छह महीने बाद महाराज एक हज़ार एक कवियों के क़ैदख़ाने में गए, और उन सबकी तलाशी की आज्ञा दी और एक हज़ार एक कवियों में से एक सौ एक ऐसे निकले, जिन्होंने बंदी गृह की कड़ी यातनाओं के बीच में रहते हुए भी-रात के समय, जाग-जागकर, पहरेदारों से छुपा-छुपाकर कविता की थी, और यह न सोचा था, कि अगर महाराज को उनके इस अपराध (?) का पता लग गया, तो उनका क्रोध जाग उठेगा, और इस राज्य का सबसे बलवान आदमी उन्हें कोड़े मार-मारकर जान से मार डालेगा।

महाराजने अपने मंत्रीसे कहा - "तुमने देखा! यह नौ सो आदमी, कवि न थे, नाम के भूखे थे। इनको छह-छह महीने की तन्ख़ाह देकर विदा कर दो। और यह एक सौ एक आदमी किसी हद तक कवि हैं। इनको रहने के लिए हमारा मोर-महल दे दो। और देखो, इन्हें किसी तरह की तकलीफ न हो।"

मंत्री ने ऐसा ही किया। अब यह कवि अच्छे कपड़े पहनते थे, अच्छे भोजन खाते थे, और रात दिन रासंरग में लीन रहते थे। लोग उनके ऐश-आराम की कहानियां सुनते थे, और अपने दुर्भाग्य पर ठंढी आहें भरते थे । छह महीने बाद महाराज अपने मंत्री को साथ लेकर एक बार फिर एक सौ एक कवियों के मोर-महल में गए, और उन सबको अपने सामने बुलाकर बोले- "तुमने बेपरवाई के छह महीनों में क्या कुछ कहा है? हम सुनना चाहते हैं।"

एक सौ एक आराम दासों में से सिर्फ एक ऐसा था, जिसने मोर-महल की इन्द्र सभाओं में कोई भाग न लिया था और अपने मन के उद्गारों को शब्दों में बांधता रहा था। दूसरे शराब पीते थे, और झूमते थे।

वह एकान्त में बैठकर आप ही अपनी कविताएं पढता था, आप ही खुश होता था । जैसे जंगल में मोर आप ही नाचता है, आप ही देखकर खुश होता है।

चांद और सूरज के प्यारे महाराज ने अपने नौजवान मंत्री से कहा- "यह एक सौ आदमी भी कवि न थे, आराम के भूखे थे। जब यह क़ैद थे, इनकी आंखें अपनी दुर्दशा पर रोती थीं, और चूंकि उस वक्त इनका जीवन, जीवन की बहारों से ख़ाली था इसलिए उन दिनों इन्हें अपना जीवन प्यारा न था। उस समय इन्होंने कविता की, और उसमें अपने भाग्य केअंधेरे और अंधेरे के भाग्य का रोना रोया। मगर जब वे दिन बीत गए, और जब वे काली घडिरयाँ गुजर गई, तो इन्हें काव्य और कल्पनाकी कला भी भूल गई। यह दुःख के दिनों के कवि हैं, सुख के समय के कलाकार नहीं। इनको धक्के देकर महल से निकाल दो।"

इसके बाद महाराजने उस साधु स्वभाव, बेपरवा आदमी की तरफ इशारा करके कहा-"यह सच्चा कवि है, जिसके लिए दुःख और सुख दोनों एक बराबर हैं। यह दुःख की रात में भी कविता करता है, यह सुख के प्रभात में भी कविता करता है। यह मौत के काले रास्ते पर भी कविता करता है, यह जीवनकी सुन्दर घाटियों में भी कविता करता है। यह इसका स्वभाव है। यह इसका जीवन है। यह इसके बिना रह नहीं सकता। यह सच्चा कवि है। यह एक हज़ार एक कंकरों में हीरा है। हमने इसे आज से अपना दरबारी कवि नियत किया। हम इसे मुंह मांगी तनख़्वाह देंगे। इसका काम केवल इतना है, कि हमें हर रोज़ दरबार में आकर एक दोहा सुना जाया करे।

कविने दरबार में जाकर महाराज को एक दिन दोहा सुनाया, दूसरे दिन दोहा सुनाया, तीसरे दिन दोहा सुनाया, चौथे दिन लिख भेजा, मुझसे इस तरहकी कविता नहीं हो सकती। मैं उद्गारों का कवि हूं, किसी की मरज़ी का गुलाम नहीं।

नौजवान मंत्रीने कहा-"यह आदमी कितना अभागा है।"

मगर महाराज ने कहा-"नहीं यह अभागा नहीं, यह कवि है अगर आज तेरा पिता, मेरा पहला मंत्री जीता होता, तो साहित्य मंदिर के इस पुजारी के पांव पकड़ लेता। यह आज़ाद है, यह आज़ादी की कविता करता है। जो गुलाम होगा, वह गुलामी की कविता करेगा। यह आदमी दरबार में आए, या न आए इसकी तनख़ाह हमेशा इसके घर पहुँचती रहे। ऐसे उच्च कोटि के कलाकार का भूख़ा रहना मेरे राज्य का सबसे बड़ा अपमान है।"

नौजवान मंत्री की आँखें खुल गई।

-सुदर्शन

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