अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।

उपस्थिति

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 जयप्रकाश मानस | Jaiprakash Manas

व्याकरणाचार्यों से दीक्षा लेकर नहीं 
कोशकारों के चेले बनकर भी नहीं 
इतिहास से भीख माँगकर तो कतई नहीं

नए शब्दों के लिए 
नापनी होंगी दिशाएँ 
फाँकने पड़ेंगे धूल 
सहने पड़ेंगे शूल

अभी
निहायत अपरिचित, उदास, एकाकी 
शब्दों की उपस्थिति
नहीं हुई है कविता में

अभी पराजय की घोषणा न की जाए
मुठभेड़ों की आवाजें आ ही रही हैं छन-छनकर 
क्या पता किसी के पास बची हो एकाध गोली
क्या पता आखिरी गोली से टूट जाए कारागृह का ताला 
और फिर बंदीगण
सूरज नहीं आ सकता
हर किसी के आँगन में सुबह होते ही 
किरणें बराबर आती रहें
पूरब की ओर हों आपके घर के दरवाजे 
खिड़कियाँ

माँओं की गोद में आना बाकी है अंतिम बच्चा 
चिड़ियों को याद है अभी भी गीत की एक कड़ी 
लड़ाकुओं ने चलाया नहीं है अंतिम अस्त्र
कुछ सपने अभी भी कुँआरे हैं 
हवाओं में भटक रहे हैं
फिर ऐसे में कैसे हो सकती है 
दैत्य की विजय

-जयप्रकाश मानस

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