प्रत्येक नगर प्रत्येक मोहल्ले में और प्रत्येक गाँव में एक पुस्तकालय होने की आवश्यकता है। - (राजा) कीर्त्यानंद सिंह।

प्राण रहते

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 भवानी प्रसाद मिश्र | Bhawani Prasad Mishra

प्राण रहते
चाहता हूँ ओंठ पर नित गान रहते
भाग्य का यह चक्र फिरता या न फिरता
नभ बरसता फूल अथवा गाज गिरता
जय-पराजय में अगर हम शीस उन्नत नष्ट शंका
वज्र पुष्प समान सहते!
प्राण रहते!!

कठिन क्षण में सहज गति होती हमारी
और धीरज मति नहीं खोती हमारी
प्रलय-पारावार वीचि-विलास होता
ढंग से पतवार चलती
जलधि-भर जलयान बहत !
प्राण रहते!!

लोग देते साथ अथवा छोड़ देते
किन्तु हम नाता प्रलय से जोड़ लेते
हाथ मानो पकड़कर तूफ़ान का हम
बढ़ रही हर लहर को सोपान कहते!
प्राण रहते!!

- भवानी प्रसाद मिश्र

[20 दिसंबर 1947]

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