हास्य केले का छिलका नहीं- सड़क पर फेंक दो और आदमी फिसल जाए, व्यंग्य बदतमीजों के मुंह का फिकरा नहीं- कस दो और संवेदना छिल जाए। हास्य किसी फूहड़ के जूड़े में रखा हुआ टमाटर नहीं, वह तो बिहारी की नायिका की नाक का हीरा है। मगर वे इसे क्या समझेंगे जो साहित्य का खोमचा लगाते हैं और हास्य जिनके लिए जलजीरा है !
इसे समझो, पहचानो, यह आलोचक नहीं, हिन्दी का जानीवाकर है बात लक्षण में नहीं अभिधा में ही कह रहा हूँ- अंधकार का अर्थ ही प्रभाकर है!
-गोपालप्रसाद व्यास ( हास्य सागर, 1996 )
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