भारत की परंपरागत राष्ट्रभाषा हिंदी है। - नलिनविलोचन शर्मा।

काकी

 (बाल-साहित्य ) 
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रचनाकार:

 सियाराम शरण गुप्त | Siyaram Sharan Gupt

उस दिन बड़े सवेरे श्यामू की नींद खुली तो उसने देखा घर भर में कुहराम मचा हुआ है। उसकी माँ नीचे से ऊपर तक एक कपड़ा ओढ़े हुए कम्बल पर भूमि-शयन कर रही है और घर के सब लोग उसे घेर कर बड़े करुण स्वर में विलाप कर रहे हैं।

लोग जब उसकी माँ को श्मशान ले जाने के लिए उठाने लगे, तब श्यामू ने बड़ा उपद्रव मचाया। लोगों के हाथ से छूटकर वह माँ के ऊपर जा गिरा। बोला, काकी सो रही है। इसे इस तरह उठा कर कहाँ ले जा रहे हो? मैं इसे न ले जाने दूंगा।

लोगों ने बड़ी कठिनाई से उसे हटाया। काकी के अग्नि-संस्कार में भी वह न जा सका। एक दासी राम-राम करके उसे घर पर ही सँभाले रही।

यद्यपि बुद्धिमान गुरुजनों ने उसे विश्वास दिलाया कि उसकी काकी उसके मामा के यहाँ गयी है, परन्तु यह बात उससे छिपी न रह सकी कि काकी और कहीं नहीं ऊपर राम के यहाँ गयी है। काकी के लिए कई दिन लगातार रोते-रोते उसका रुदन तो धीरे-धीरे शान्त हो गया, परन्तु शोक शान्त न हो सका। वह प्रायः अकेला बैठा-बैठा शून्य मन से आकाश की ओर ताका करता।

एक दिन उसने ऊपर एक पतंग उड़ती देखी। न जाने क्या सोचकर उसका हृदय एकदम खिल उठा। पिता के पास जाकर बोला, ‘काका, मुझे एक पतंग मँगा दो, अभी मँगा दो।'

पत्नी की मृत्यु के बाद से विश्वेश्वर बहुत अनमने से रहते थे। ‘अच्छा मँगा दूँगा,' कहकर वे उदास भाव से और कहीं चले गये।

श्यामू पतंग के लिए बहुत उत्कंठित था। वह अपनी इच्छा को किसी तरह न रोक सका। एक जगह खूँटी पर विश्वेश्वर का कोट टँगा था। इधर-उधर देखकर उसके पास स्टूल सरका कर रखा और ऊपर चढ़कर कोट की जेबें टटोली।

एक चवन्नी पाकर वह तुरन्त वहाँ से भाग गया। सुखिया दासी का लड़का भोला, श्यामू का साथी था। श्यामू ने उसे चवन्नी देकर कहा, ‘अपनी जीजी से कहकर गुपचुप एक पतंग और डोर मँगा दो। देखो अकेले में लाना कोई जान न पाये।'

पतंग आयी। एक अँधेरे घर में उसमें डोर बाँधी जाने लगी। श्यामू ने धीरे से कहा, ‘भोला, किसी से न कहो तो एक बात कहूँ।'

भोला ने सिर हिलाकर कहा ‘नहीं, किसी से न कहूँगा।'

श्यामू ने रहस्य खोला, ‘मैं यह पतंग ऊपर राम के यहाँ भेजूँगा। इसको पकड़ कर काकी नीचे उतरेगी। मैं लिखना नहीं जानता नहीं तो इस पर उसका नाम लिख देता।'

भोला श्यामू से अधिक समझदार था। उसने कहा, ‘बात तो बहुत अच्छी सोची, परन्तु एक कठिनाई है। यह डोर पतली है। इसे पकड़ कर काकी उतर नहीं सकती। इसके टूट जाने का डर है। पतंग में मोटी रस्सी हो तो सब ठीक हो जाये।'

श्यामू गम्भीर हो गया। मतलब यह बात लाख रुपये की सुझायी गयी, परन्तु कठिनाई यह थी कि मोटी रस्सी कैसे मँगायी जाय। पास में दाम है नहीं और घर के जो आदमी उसकी काकी को बिना दया-मया के जला आये हैं, वे उसे इस काम के लिए कुछ देंगे नहीं। उस दिन श्यामू को चिन्ता के मारे बड़ी रात तक नींद नहीं आयी।                               
                                   -सियारामशरण गुप्त

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