जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।

पीर

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 डॉ सुधेश

हड्डियों में बस गई है पीर।

पाँव में काँटा लगा जैसे
जो बढ़ते क़दम को रोके
मगर इस का क्या करूँ
जो गई मेरी हड्डियों को चीर।

दुख की रात का होता सवेरा
मगर इस का हर घडी डेरा
कौन से मनहूस पल में
किसी दुश्मन ने लिखी तक़दीर।

क्या सजा है इस जनम की
या इस जनम में पाले भरम की
ख़्वाहिशों के पाँव में बाँधी
किस ने दु:ख की ज़ंजीर।

- डॉ सुधेश 
  314 सरल अपार्टमैंट्स, द्वारका, सैक्टर 10
  दिल्ली 110075 
  फ़ोन 9350974120
  ई-मेल: dr.sudhesh@gmail.com

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