अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।

दुख में भी परिचित मुखों को

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 त्रिलोचन

दुख में भी परिचित मुखों को तुम ने पहचाना है क्या
अपना ही सा उन का मन है यह कभी माना है क्या

जिन की हम ने याद की जिन के लिए बैठे रहे
वे हमें भूलें तो भूलें इस में पछताना है क्या

हाथ ही हिलता न हो जब पाँव ही उठता न हो
इन की उन की बात से आना है क्या जाना है क्या

आजकल क्या कुछ इधर मेरे हृदय को हो गया
चुप ही चुप है, अब उसे रोना है क्या गाना है क्या

जब तुम्ही से दूर हूँ तब मैं निकट किस के रहूँ
होश जाने पर यहाँ खोना है क्या पाना है क्या

हँस के तुम ने क्यों कहा बोलो तुम्हें क्या चाहिए
तुम हो तो पाना है क्या और तुम को भी लाना है क्या

मुझ को दुख यदि है त्रिलोचन तो इसी का जान तू
यदि स्वयं समझे न वे तो उन को समझाना है क्या

-त्रिलोचन
 [गुलाब और बुलबुल]

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