देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।

झेप अपनी मिटाने निकले हैं

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 विजय कुमार सिंघल

झेप अपनी मिटाने निकले हैं
फिर किसी को चिढ़ाने निकले हैं

ऊब कर आदमी की बस्ती से
टहलने के बहाने निकले हैं

शुक्र है अपनी अंधी  बस्ती में
चंद हज़रात काने निकले हैं

पोंछ कर अश्क बंद कमरे में
आज फिर मुस्कराने निकले हैं

सूदखोरों की एक अमानत हैं 
खेत से जितने दाने निकले हैं

जिसका चूल्हा जला न हफ्तों से
अब उसी को जलाने निकले हैं

-विजय कुमार सिंघल

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