अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।

वही टूटा हुआ दर्पण

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi

वही टूटा हुआ दर्पण बराबर याद आता है
उदासी और आँसू का स्वयंवर याद आता है

कभी जब जगमगाते दीप गंगा पर टहलते हैं
किसी सुकुमार सपने का मुक़द्दर याद आता है

महल से जब सवालों के सही उत्तर नहीं मिलते
मुझे वह गाँव का भीगा हुआ घर याद आता है

सुगन्धित ये चरण, मेरा महक से भर गया आँगन
अकेले में मगर रूठा महावर याद आता है

समन्दर के किनारे चाँदनी में बैठ जाता हूँ
उभरते शोर में डूबा हुआ स्वर याद आता है

झुका जो देवता के द्वार पर वह शीश पावन है
मुझे घायल मगर वह अनझुका सर याद आता है

कभी जब साफ़नीयत आदमी की बात चलती है
वही 'त्यागी' बड़ा बदनाम अक्सर याद आता है

-रामावतार त्यागी

 

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