देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।

झुकी कमान

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 चंद्रधर शर्मा गुलेरी | Chandradhar Sharma Guleri

आए प्रचंड रिपु, शब्द सुना उन्हीं का,
भेजी सभी जगह एक झुकी कमान।
ज्यों युद्ध चिह्न समझे सब लोग धाये,
त्यों साथ थी कह रही यह व्योम वाणी॥
"सुना नहीं क्या रणशंखनाद ?
चलो पके खेत किसान! छोड़ो।
पक्षी उन्हें खांय, तुम्हें पड़ा क्या?
भाले भिड़ाओ, अब खड्ग खोलो।
हवा इन्हें साफ़ किया करैगी,-
लो शस्त्र, हो लाल न देश-छाती॥"

स्वाधीन का सुत किसान सशस्त्र दौड़ा,-
आगे गई धनुष के संग व्योमवाणी।

 


(2)
छोड़ो शिकारी! गिरी की शिकार,
उठा पुरानी तलवार लीजै।
स्वतंत्र छूटें अब बाघ भालू,
पराक्रमी और शिकार कीजै।
बिना सताए मृग चौकड़ी लें-
लो शस्त्र, हैं शत्रु समीप आएं ॥"
आया सशस्त्र, तजके मृगया अधूरी;
आगे गई धनुष के संग व्योमवाणी॥

 


(3)

"ज्योनार छोड़ो सुख की, रईसो!
गीतांत की बाट न वीर! जोहो।
चाहे घना झाग सुरा दिखावै,
प्रकाश में सुंदरि नाचती हों।
प्रासाद छोड़, सब छोड़ दौड़ो,
स्वदेश के शत्रु अवश्य मारो।"
सर्दार ने धनुष ले, तुरही बजाई; -
आगे गई धनुष के संग व्योमवाणी॥

 

(4)

राजन! पिता की तब वीरता को,
कुंजों, किलों में सब गा रहे हैं।
गोपाल बैठे जहँ गीत गावैं ,
या भाट वीणा झनका रहे हैं॥
अफ़ीम छोड़ो, कुल-शत्रु आए-
नया तुम्हारा यश भाट पावैं।"

बंदूक ले नृप-कुमार बना सु-नेता,
आगे गई धनुष के सँग व्योमवाणी॥

 

(5)

"छोड़ो अधूरा अब यज्ञ ब्रह्मन !
वेदांत-पारायण को बिसारो।
विदेश ही का बलि वैश्वदेव,
औ' तर्पणों में रिपुरक्त डारो॥
शस्त्रार्थ शास्त्रार्थ गिनो अभी से-
चलो, दिखाओ हम अग्रजन्मा॥
धोती सम्हाल, कुश छोड़, सबाण दौड़े-
आगे गई धनुष के संग व्योमवाणी॥

 

(6)

"माता! न रोको निज पुत्र आज,
संग्राम का मोद उसे चखाओ।
तलवार भाले भगिनी! उठा ला,
उत्साह भाई निज को दिलाओ॥
तू सुंदरी! ले प्रिय से विदाई,
स्वदेश माँगे उनकी सहाई॥"
आगे गई धनुष के संग व्योमवाणी
है सत्य की विजय, निश्चय बात जानी॥
है जन्मभूमि जिनको जननी समान,
स्वातंत्र्य है प्रिय जिन्हें शुभ स्वर्ग से भी,
अन्याय की जकड़ती कटु बेड़ियों को,
विद्वान वे कब समीप निवास देंगे?


-श्री चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी'

[समालोचना, नवम्बर-दिसम्बर 1905 ]

टिप्पणी- यह रचना इंटरनेट पर कई स्थानों पर आधी-अधूरी प्रकाशित है लेकिन यहाँ भारत दर्शन में श्री चंद्रधर शर्मा गुलेरी की सम्पूर्ण रचना  प्रकाशित की जा रही है । यह रचना समालोचक पत्रिका के नवंबर-दिसंबर 1905 के अंक में प्रकाशित हुई थी । यह रचना' राष्ट्रीय कविताएं' (1957) नामक संग्रह में भी प्रकाशित है।

 

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