यह संदेह निर्मूल है कि हिंदीवाले उर्दू का नाश चाहते हैं। - राजेन्द्र प्रसाद।

हम दीवानों की क्या हस्ती

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 भगवतीचरण वर्मा

हम दीवानों की क्या हस्ती,
आज यहाँ कल वहाँ चले,
मस्ती का आलम साथ चला,
हम धूल उड़ाते जहाँ चले ।

आए बनकर उल्लास अभी,
आँसू बनकर बह चले अभी,
सब कहते ही रह गए, अरे,
अरे तुम कैसे आए, कहाँ चले ?

किस ओर चले? मत ये पूछो,
बस चलना है, इसलिए चले,
जग से उसका कुछ लिए चले,
जग को अपना कुछ दिए चले,

दो बात कहीं, दो बात सुनी;
कुछ हँसे और फिर कुछ रोए ।
छक कर सुख दुःख के घूँटों को,
हम एक भाव से पिए चले ।

हम भिखमंगों की दुनिया में,
स्वछन्द लुटाकर प्यार चले
हम एक निशानी उर पर,
ले असफलता का भार चले ।

हम मान रहित, अपमान रहित,
जी भर कर खुलकर खेल चुके,
हम हँसते हँसते आज यहाँ,
प्राणों की बाज़ी हार चले ।

अब अपना और पराया क्या ?
आबाद रहें रुकने वाले !
हम स्वयं बंधे थे और स्वयं,
हम अपने बन्धन तोड़ चले ।

-भगवतीचरण वर्मा

 

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