यदि पक्षपात की दृष्टि से न देखा जाये तो उर्दू भी हिंदी का ही एक रूप है। - शिवनंदन सहाय।
जयप्रकाश मानस से बातचीत (विविध)    Print this  
Author:रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

स्वंयसेवी आधार पर हिंदी-संस्कृति का प्रचार-प्रसार - जयप्रकाश मानस
[2012]

पत्रकारों के लिए सूचना पाने के विभिन्न माध्यमों में फेसबुक भी अपना अहम स्थान बना रही है। हिंदी जगत से जुड़े लोगों के लिए यह कोई नया समाचार न होगा कि सृजन- सम्मान संस्था व साहित्यिक वेब पत्रिका सृजनगाथा डॉट कॉम द्वारा अभी तक चार अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलनों का सफल आयोजन किया जा चुका है और पाँचवाँ आयोजन 24 जून से 1 जुलाई, 2012 तक ताशकंद-समरकंद-उज्बेकिस्तान में आयोजित किया जा रहा है। मुझे सूचना मिलती है तो मैं समारोह के संयोजक श्री जयप्रकाश मानस से और जानकारी हेतु सम्पर्क करता हूँ। वे मेरी ई-मेल पूछकर मुझे ई-मेल पर सूचना भेजने की कहते हैं।
मैं अपने गृह-कार्यालय में बैठा बाहर लगी हरी-भरी घास को देख रहा हूँ कि तभी मोबाइल बज उठता है! 'हाँ, कौन? ओह, पाटिल भाई! हाँ, आ जाओ- कुछ देर बैठेंगे।"

पाटिल भाई कोई साहित्यकार या पत्रकार नहीं है पर अच्छे परिचित हैं। अभी थोड़ी देर में आने को कहा है, बस आने वाले होंगे। फरवरी में यहाँ न्यूज़ीलैंड में बहुत गर्मी पड़ती है लेकिन इस बार अभी तक बरसात भी चल रही है और सर्दी ने भी पूरी तरह अलविदा नहीं कहा है। मैं चाय की केतली का बटन दबाकर इतनी देर कम्प्यूटर पर अपनी ई-मेल चैक करने लगता हूँ तभी पाटिल भाई पहुंच जाते हैं। मैं उन्हें अभिवादन कहकर ई-मेल पूरी पढ़ लेना चाह रहा हूँ।

"क्या, कोई ज़रूरी मेल है?"

"एक अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन के बारे में है!"

"विश्व हिंदी सम्मेलन?"

"नहीं!"

फिर इधर-उधर की बातें होती हैं, हम साथ चाय पीते हैं और पाटिल भाई फिर कभी आने की कह कर चल देते हैं।

मैं हिंदी सम्मेलनों के बारे में सोचने लगता हूँ - विश्व हिंदी सम्मेलन, हिंदी महोत्सव और अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन! इन सम्मेलनों का वास्तविक औचित्य क्या है?

तभी देखता हूँ कि अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन के संयोजक मानसजी फेसबुक पर विद्यमान हैं। पिछले कुछ दिनों से मैं पत्रकारिता में फेसबुक के उपयोग को लेकर अध्ययनरत था। अगले ही पल मैं फेसबुक पर मानसजी वाली वार्तालाप की हरी बटन दबा देता हूँ।
"नमस्कार, मानसजी!"

"नमस्कार भाईजी!"

मानसजी से कुशलक्षेम पूछकर मैं उन्हें कहता हूँ कि मैं अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन के बारे में कुछ प्रश्न पूछना चाहता हूँ।

"ज़रूर।"

"कब सम्पर्क करूं? कब सुविधा होगी?"

"अभी पूछ लो।"

"अभी?"

वे बड़े सहज भाव से हामी भरते हैं। और फिर आरम्भ हो जाता है हमारा प्रश्नोत्तर काल - फेसबुक पर, तत्काल!

जब पहले ही विश्व हिंदी सम्मेलन और हिंदी महोत्सव जैसे सम्मेलनों का आयोजन किया जा रहा है तो इस नये सम्मेलन की आवश्यकता क्यों पड़ी?

हमनें अपने सम्मेलन का उद्देश्य प्रपत्र में स्पष्ट लिखा है - सम्मेलन का उद्देश्य स्वंयसेवी आधार पर हिंदी-संस्कृति का प्रचार-प्रसार, भाषायी सौहार्द्रता एवं न्यूनतम लागत में सामूहिक रूप से सांस्कृतिक अध्ययन-पर्यटन सहित एक दूसरे से अपरिचित सृजनरत रचनाकारों के मध्य परस्पर रचनात्मक तादात्म्य उपलब्ध कराना भी है। यथाशक्ति विदेश की संस्कृति को समझना परखना भी एक उद्देश्य है जो पहले ही प्रपत्र में उल्लेखित है। विश्व हिंदी सम्मेलन कम समय का होता है और इस सम्मेलन में में एक सप्ताह तक रचनाकार आपस में एक दूसरे की रचनात्मकता से भी परिचित होते हैं।

इस सम्मेलन में भागीदार स्वयंसेवी के रुप में सम्मिलित हो रहे हैं अर्थात वे अपना व्यय स्वयं वहन करेंगे तो क्या यह सम्पन्न साहित्यकारों का सम्मेलन भर होकर रह जाएगा?


विश्व हिंदी सम्मेलन में भी 99 प्रतिशत साहित्यकार अपने व्यय से सम्मिलित होते हैं।

यह शायद आप जानते ही हैं और कई ऐसे महत्वपूर्ण साहित्यकार है जिन्हें यह पता ही नहीं लगता कि कैसे और कब कहाँ जाना है!

प्रतिभागिता सहभागिता के आधार पर होगी व आपकी संस्था प्रतिभागियों का संयोजन भार वहन कर रही है लेकिन जिन साहित्यकारों के पास धनाभाव है और वे इतना खर्च नहीं उठा सकते क्या उनके लिए भी कोई प्रावधान रखा गया है?

हम सबको प्रजातांत्रिक तौर पर आमंत्रित करते हैं। हिंदी के अधिकांश लेखक के पास पैसा नहीं है, जब भारत सरकार ऐसा प्रावधान नहीं रख सकती तो एक साधारण पोर्टल के पास करोड़ो रूपये कहाँ से आयेंगे? वह बस संयोजन भार उठाता है! और ऐसा कितने संस्थान कर रहे हैं? आप हम सभी जानते हैं!

यदि आप मानते हैं कि हिंदी के आम साहित्यकार के पास पैसा नहीं है तो भारत के विभिन्न राज्यों में इनका आयोजन न करवा कर विदेश में आयोजन का क्या कारण है?

हम देश में ऐसे दर्जनों आयोजन कर रहे हैं जिसमें हम अपने संस्थान से लाखों रुपये खर्च करके आमंत्रित करते हैं, सम्मानित करते हैं, महत्वपूर्ण और गंभीर विषयों पर विमर्श करते हैं।

आप प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान सर्च करके देखें, जाने कितने आयोजन आपको दिखाई देंगे! ....और भागीदारी भी, इस वैश्विकता के दौर में!

 

लेकिन, क्या वे साहित्यकार जो वहां धनाभाव के कारण नहीं पहुंच पा रहे - क्या उनका साहित्य किसी रुप से वहां पहुंच पाएगा?


क्यों नहीं पहुंचेगा। वे अपनी किताब भेज सकते हैं, विमोचन करा सकते हैं, अपनी कविताओं का पोस्टर लगा सकते हैं। फिर सभी जायें, यह जरूरी नहीं है। और यह क़तई महत्वपूर्ण नहीं है कि आप कहीं ना जायें और कोई दूसरा उसे वहाँ करने के लिए विवश है।

यह तो एक नया प्रयोग होगा!


हम वहाँ पेंटिग और पोस्टर प्रदर्शनी भी रख रहे हैं। क्या यह विश्व हिंदी समारोह में होता है? [ फिर पल भर को रूक कर वे स्वयं ही उत्तर देते हैं] ..नहीं! और एक बात स्पष्ट मान लें, यह एक अध्ययनगत सम्मेलन भी है, जिसमें देश की संस्कृति, रचनात्मकता, लेखकों से परिचित होना भी है यानी प्रत्यक्ष अवलोकन।


लेकिन हम उन साहित्यकारों और लोक साहित्यकारों की बात कर रहे हैं जो वित्तीय तौर पर कमजोर हैं लेकिन समाज को सदैव दे रहे हैं!

इस प्रश्न का उत्तर मैं दे चुका हूं, ऐसे लोगों को संस्थान छापती है, सरकार पेशन भी देती है।

वित्तीय तौर पर अमीर साहित्यकार का नाम बतायें तो? या तो मध्यमवर्ग ही है साहित्य में, जो छोटी - मोटी नौकरी में है या कोई छोटा-मोटा धंधा करता है। हमने पिछले साल 20 किताबें छापी हैं। नये पुराने और सहायता से वंचित लेखकों की।

बिलकुल नये रचनाकारों के लिए मात्र पिछले साल ही तीन रचना शिविर 3-3 दिन के हुए हैं। नि:शुल्क!


क्या उन शिविरों में समस्त भारत से रचनाकार आए?

क्यों नहीं, देश भर से आये। यहाँ तक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्व विद्यालय से भी, दिल्ली से, गांव देहात से भी। और जो नहीं आयेगा उसके लिए माथा तो नहीं फोडा जा सकता क्योंकि साहित्यकार गुंडे किस्म की हरकतें भी करते हैं।

वहाँ जायें तो अछूत, यहां जायें तो ब्राह्मण।

[ साहित्य लोक में राजनीति, उठा-पटक, तिकड़मबाजी और कुर्सी को लेकर होने वाले दंगल किसी से छुपे हुए नहीं हैं। मानसजी से वार्तालाप करते हुए लग रहा था कि आप किसी लेखक से बात कर रहे हैं - उनका वार्तालाप बिल्कुल सीधा और स्पष्ट था! कोई टाल-मटोल नहीं! ]

मानस जी...आपने कहा की विश्व हिंदी सम्मेलन में 99% लोग अपना पैसा लगा कर जाते हैं लेकिन कहा तो यह जाता है कि पिछले कुछ वर्षों से जा तो कोई भी सकता है पर उसमें सम्मिलित लोग तो केवल सुविख्यात साहित्यकार या राजनैतिक गलियारों में 'पहुंच वाले लोग' ही होते हैं? क्या आप सहमत हैं?

नहीं, सभी अपने खर्चे से जाते हैं। हमारे राज्य से कई जा चुके हैं। जा कोई भी सकता है। पहुंच वाले या दिल्ली दरबार से जुड़े दस-बीस को ख़र्चा मिलता है बस यानी जब लोग इस तरह खर्च करके विश्व हिंदी सम्मेलन में जा सकते हैं तो फिर इस आयोजन में क्यों नहीं?

इस आयोजन में सभी को समान अवसर मिलता है। विश्व हिंदी सम्मेलन में नहीं! आप भीड़ की तरह बैठे होते हैं, अमेरिका में जो सम्मेलन हुआ उसमें रहने ठहरने का भी पैसा लिया ही गया था। वीज़ा बनवाने खुद दिल्ली सबको भागना पड़ा था।

वीज़ा बनाने का ज़िम्मा आयोजक या भारत सरकार नहीं लेती, हम लेते हैं। सृजन-सम्मान के आयोजन में ऐसा नहीं होता सारी व्यवस्था और देखभाल होती है और यह पाँचवाँ आयोजन है।

वही तो मैं पहले भी पूछ रहा था कि क्यों न भारत के हर राज्य में पहले इनका आयोजन हो?

कर तो रहे हैं, आ तो रहे हैं पर सिर्फ वही करने के लिए प्रश्न क्यों? यह नहीं करने के पीछे का तर्क तो किसी मतलब का नहीं है! फिर यह आप पर निर्भर है कि आप जायें ना जायें।

[ मेरी ओर से प्रश्न की पुनरावृति मानसजी को शायद नहीं भाति और वे यह दर्शाने में किंचित् संकोच नहीं करते। ]

नहीं, मैं विश्व हिंदी सम्मेलन की बात कर रहा हूं। भारत के अन्य राज्यों को भी तो जोड़ा जाना चाहिए ! [ मैं अपने प्रश्न को स्पष्ट करने का प्रयास करता हूँ ]


विश्व हिंदी सम्मेलन की जानकारी गृह मंत्रालय राजभाषा शाखा से ली जा सकती है।

वे जाने, किसको जोड़ना है, किसको नहीं। हम अपनी बात करते हैं, अपना काम करते हैं। ...और उनसे पूछने का अधिकार सांसदो को हैं, मंत्रियों को है, आप जैसे पत्रकारों को है।

अभी तक आपने विभिन्न देशों में आयोजन करवाए हैं और अब ताशकंद (उज्जबेकिस्तान) में करवा रहे हैं - इन देशों के चयन का क्या कोई विशेष आधार या कारण है?

सबसे पहले वहां जहाँ-जहाँ अधिक प्रवासी हैं, फिर नजदीक के देशों को पहल दी गई है। इसमें हम कुल व्यय का भी ख़्याल रखते हैं और पिछले आयोजन में सम्मिलित प्रतिभागियों की राय शुमारी भी होती है। हिंदी-भाषियों की संख्या भी एक महत्वपूर्ण कारण होता है।

ताशकंद और भारत के प्रारंभ से बेहतर संबंध रहे हैं। ताशकंद प्रत्येक भारतीय के ज़ेहन में शास्त्री जी (लाल बहादुर शास्त्री) के कारण भी जुड़ा हुआ है ।

क्या वहां की सरकार, भारतीय संस्थाएँ या भारतीय उच्चायुक्त आपको सहयोग दे रहे हैं?
फिर आप भारत सरकार की ओर ले जा रहे हैं!

हाँ, हिंदी की कम ही संस्थाएँ है ऐसे देशों में, पर जहाँ है, वहाँ बहुत सहयोग मिलता है।

फिर भी...उच्चायुक्त तो अपने स्तर पर सहयोग कर ही सकते हैं?

मारीशस में बहुत सकारात्मक सहयोग मिला, थाईलैंड में बहुत सहयोग मिला।

हमारा काम सूचित करना है, आग्रह करना है - यदि वह ना करें तो आप क्या कर सकते हैं?

आपको ऐसे सरकारी उपक्रमों को जोड़ने के लिए दिल्ली का दबाव चाहिए होता है।

ऐसा करना उद्देश्य नहीं है। आत्मनिर्भर होकर सम्मेलन करना इसका उद्देश्य है। ...और उच्चायुक्त आपके आयोजन में आ भी गये तो इससे आपको क्या फायदा होगा?

[ मैं सरकार की साझेदारी का प्रश्न छोड़, मीडिया की भूमिका की राह पकड़ता हूँ। क्या भारतीय मीडिया हिंदी सम्मेलनों को उतना सम्मान और अपने पत्र-पत्रिका, प्रसारण या चैनलों पर न्यायोचित स्थान देता है? मानसजी इस बारे में क्या कहते हैं? ]

आपकी संस्था द्वारा इतना काम करने पर क्या भारतीय मीडिया ने न्यायोचित सहयोग दिया या कवरेज की?

भारतीय मीडिया 100 प्रतिशत सहयोगी है।

[ मानसजी मीडिया से 100 प्रतिशत संतुष्ट जान पड़ते हैं। देखते हैं आने वाले महीनों में मीडिया 'हिंदी सम्मेलनों' को कितना महत्व देता है!]

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Rohit Kumar 'Happy' talks with the International co-ordinator of 5th International Hindi Conference, Jai Prakash Manas. to the 5th International Hindi Conference to be held at Tashkent, capital of Uzbekistan.

 

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