प्रत्येक नगर प्रत्येक मोहल्ले में और प्रत्येक गाँव में एक पुस्तकालय होने की आवश्यकता है। - (राजा) कीर्त्यानंद सिंह।
सरकस | बाल-कविता  (बाल-साहित्य )    Print this  
Author:मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt

होकर कौतूहल के बस में,
गया एक दिन मैं सरकस में।
भय-विस्मय के खेल अनोखे,
देखे बहु व्यायाम अनोखे।
एक बड़ा-सा बंदर आया,
उसने झटपट लैम्प जलाया।
डट कुर्सी पर पुस्तक खोली,
आ तब तक मैना यौं बोली।
"हाजिर है हजूर का घोड़ा,"
चौंक उठाया उसने कोड़ा।
आया तब तक एक बछेरा,
चढ़ बंदर ने उसको फेरा।
टट्टू ने भी किया सपाटा,
टट्टी फाँदी, चक्कर काटा।
फिर बंदर कुर्सी पर बैठा,
मुँह में चुरट दबाकर ऐंठा।
माचिस लेकर उसे जलाया,
और धुआँ भी खूब उड़ाया।
ले उसकी अधजली सलाई,
तोते ने आ तोप चलाई।
एक मनुष्य अंत में आया,
पकड़े हुए सिंह को लाया।
मनुज-सिंह की देख लड़ाई,
की मैंने इस भाँति बड़ाई-
किसे साहसी जन डरता है,
नर नाहर को वश करता है।
मेरा एक मित्र तब बोला,
भाई तू भी है बम भोला।
यह सिंही का जना हुआ है,
किंतु स्यार यह बना हुआ है।
यह पिंजड़े में बंद रहा है,
नहीं कभी स्वच्छंद रहा है।
छोटे से यह पकड़ा आया,
मार-मार कर गया सिखाया।
अपनेको भी भूल गया है,
आती इस पर मुझे दया है।

- मैथिलीशरण गुप्त

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