अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
हिन्दी रुबाइयां (काव्य)    Print this  
Author:उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans

मंझधार से बचने के सहारे नहीं होते,
दुर्दिन में कभी चाँद सितारे नहीं होते।
हम पार भी जायें तो भला जायें किधर से,
इस प्रेम की सरिता के किनारे नहीं होते॥ 


2)

तुम घृणा, अविश्वास से मर जाओगे,
विष पीने के अभ्यास से मर जाओगे। 
ओ बूंद को सागर से लड़ाने वालो,
घुट-घुट के स्वयं प्यास से मर जाओगे॥


3)

प्यार दशरथ है सहज विश्वासी,
जबकि दुनिया है मंथरा दासी। 
किन्तु ऐश्वर्य की अयोध्या में,
मेरा मन है भरत-सा संन्यासी॥ 


4)

यह ताज नहीं, रूप की अंगड़ाई है,
ग़ालिब की ग़ज़ल पत्थरों ने गाई है। 
या चाँद की अल्बेली दुल्हन चुपके से,
यमुना में नहाने को चली आई है॥ 

 

5)

पंछी यह समझते हैं चमन बदला है,
हँसते हैं सितारे कि गगन बदला है। 
शमशान की खामोशी मगर कहती है,
है लाश वही, सिर्फ कफ़न बदला है॥ 

 

6)

क्यों प्यार के वरदान सहन हो न सके,
क्यों मिलन के अरमान सहन हो न सके। 
ऐ दीप शिखा ! क्यों तुझे अपने घर में,
इक रात के मेहमान सहन हो न सके॥ 


7)

अंगों पै है परिधान फटा क्या कहने,
बिखरी हुई सावन की घटा क्या कहने। 
ये अरुण कपोलो पे ढलकते आँसू,
अंगार पै शबनम की छटा क्या कहने॥ 


8)

मैं साधु से आलाप भी कर लेता हूँ,
मन्दिर में कभी जाप भी कर लेता हूँ। 
मानव से कहीं देव न बन जाऊँ मैं, 
यह सोचकर कुछ पाप भी कर लेता हूँ॥ 

9)

मैं आग को छू लेता हूँ चन्दन की तरह, 
हर बोझ उठा लेता हूँ कंगन की तरह। 
यह प्यार की मदिरा का नशा है, जिसमें
काँटा भी लगे फूल के चुम्बन की तरह॥ 


10)

हँसता हुआ मधुमास भी तुम देखोगे,
मरुथल की कभी प्यास भी तुम देखोगे। 
सीता के स्वयंवर पै न झूमो इतना,
कल राम का वनवास भी तुम देखोगे॥ 


11)

मैं सृजन का आनन्द नहीं बेचूंगा,
मैं हृदय का मकरन्द नहीं बेचूंगा। 
मै भूख से मर जाऊंगा हँसते-हँसते, 
रोटी के लिए छन्द नहीं बेचूंगा॥ 


12)

अनुभूति से जो प्राणवान होती है
उतनी ही वो रचना महान होती है।
कवि के ह्रदय का दर्द, नयन के आँसू,
पी कर ही तो रचना जवान होती है॥

- उदयभानु 'हंस'

विशेष: उदयभानु 'हंस' को रुबाई-सम्राट कहा जाता है। हिन्दी कविता में रुबाई का प्रयोग सर्वप्रथम हंस जी ने ही किया था।

 

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