अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
सौदागर ईमान के (काव्य)    Print this  
Author:शैल चतुर्वेदी | Shail Chaturwedi

आँख बंद कर सोये चद्दर तान के,
हम ही हैं वो सेवक हिन्दुस्तान के ।

बहते-बहते पार लगे हैं हम चुनाव की बाढ़ में,
स्वतंत्रता को पकड़ रखा है हमने अपनी दाढ़ में ।
हीरे औ' माणिक हैं हम ही प्रजातंत्र की खान के
कोई कहता काम चाहिए, कोई कहता रोटी दो,
कोई नंगा खड़ा सामने कहता हमें लंगोटी दो ।
सुनते-सुनते हाय हो गये बहरे दोनों कान के ।

चार साल दिल्ली में काटे, बाकी जन-सम्पर्क में,
सारी शक्ति लगा देते है, अपनी पंचम वर्ष में ।
गरज-गरज कर भाषण देते हम बादल-तूफान के ।

कब किससे मांगा हमने, देनेवाले दे जाते हैं,
दे कर बहती गगा में, नैय्या अपनी खे जाते हें,
रामराज के जादूगर, हम सौदागर ईमान के ।।

-शैल चतुर्वेदी

साभार: भारतीय मूर्ख शिरोमणी १९७५

 

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