अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
माँ की याद बहुत आती है ! (काव्य)    Print this  
Author:डॉ शम्भुनाथ तिवारी

माँ की याद बहुत आती है !

जिसने मेरे सुख - दुख को ही ,
अपना सुख-दुख मान लिया था ।
मेरी खातिर जिस देवी ने,
बार - बार विषपान किया था ।
स्नेहमयी ममता की मूरत,
अक्सर मुझे रुला जाती है ।
माँ की याद बहुत आती है !

दिन तो प्यार भरे गुस्से में,
लोरी में कटती थीं रातें ।
उसका प्यार कभी ना थकता,
सरदी - गरमी या बरसातें ।
उस माँ की वह मीठी लोरी,
अब भी मुझे सुला जाती है ।
माँ की याद बहुत आती है !

माँ, तेरे आँचल का साया,
क्यों ईश्वर ने छीन लिया है ?
पल-पल सिसक रहा हूँ जबसे,
तूने स्नेह-विहीन किया है ।
तुमसे जितना प्यार मिला,
वह मेरे जीवन की थाती है ।
माँ की याद बहुत आती है !

बचपन, वह कैसा बचपन है,
माँ की छाँव बिना जो बीता !
माँ जितना सिखला देती है,
कहाँ सिखा सकती है गीता !
माँ के बिन सब सूना जैसे,
तेल बिना दीपक - बाती है ।
माँ की याद बहुत आती है !


- डॉ. शम्भुनाथ तिवारी
  प्रोफेसर
  हिंदी विभाग,
  अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी,
  अलीगढ़(भारत)
  संपर्क-09457436464
  ई-मेल: sn.tiwari09@gmail.com

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