अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
दोहे और सोरठे  (काव्य)    Print this  
Author:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra

है इत लाल कपोल ब्रत कठिन प्रेम की चाल।
मुख सों आह न भाखिहैं निज सुख करो हलाल॥

प्रेम बनिज कीन्हो हुतो नेह नफा जिय जान।
अक प्यारे जिय की परी प्रान-पुँजी में हान॥

तेरोई दरसन चहैं निस-दिन लोभी नैन ।
श्रवन सुनो चाहत सदा सुन्दर रस-मै बैन ।।

डर न मरन बिधि बिनय यह भूत मिलैं निज बास ।
प्रिय हित वापी मुकुर मग बीजन अँगन अकास ।।

तन-तरु चढ़ि रस चूसि सब फूली-फली न रीति ।
प्रिय अकास-बेली भई तुव निर्मूलक प्रीति ।।

पिय पिय रटि पियरी भई पिय री मिले न आन ।
लाल मिलन की लालसा लखि तन तजत न प्रान ।।

मधुकर घुन गृह दंपती पन कीने मुकताय ।
रमा विना यक बिन कहै गुन बेगुनी सहाय ।।

चार चार षट षट दाऊ अस्टादस को सार ।
एक सदा द्वै रूप धर जै जै नंदकुमार ।।

- भारतेन्दु हरिश्चंद्र

[ भारतेन्दु हरिश्चंद्र के दुर्लभ दोहे व सोरठे ]

 

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