अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
कोई और | सुशांत सुप्रिय की कविता (काव्य)    Print this  
Author:सुशांत सुप्रिय

एक सुबह
उठता हूँ
और हर कोण से
ख़ुद को पाता हूँ अजनबी

आँखों में पाता हूँ
एक अजीब परायापन
अपनी मुस्कान
लगती है
न जाने किसकी
बाल हैं कि
पहचाने नहीं जाते
अपनी हथेलियों में
किसी और की रेखाएँ
पाता हूँ

मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि
ऐसा भी होता है
हम जी रहे होते हैं
किसी और का जीवन
हमारे भीतर
कोई और जी रहा होता है



- सुशांत सुप्रिय
 मार्फ़त श्री एच.बी. सिन्हा
 5174 , श्यामलाल बिल्डिंग ,
 बसंत रोड,( निकट पहाड़गंज ) ,
 नई दिल्ली - 110055
मो: 9868511282 / 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com

Previous Page  |  Index Page  |   Next Page
 
Post Comment
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश