अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
घिन तो नहीं आती है ? | कविता (काव्य)    Print this  
Author:नागार्जुन | Nagarjuna

पूरी स्पीड में है ट्राम
खाती है दचके पे दचके
सटता है बदन से बदन-
पसीने से लथपथ
छूती है निगाहों को
कत्थई दाँतों की मोटी मुस्कान
बेतरतीब मूँछों की थिरकन
सच-सच बतलाओ
घिन तो नहीं आती है?
जी तो नहीं कढता है?

कुली मजदूर हैं
बोझा ढोते हैं
खींचते हैं ठेला
धूल-धुआँ भाप से पड़ता है साबका
थके-मांदे जहाँ-तहाँ हो जाते हैं ढ़ेर
सपने में भी सुनते हैं धरती की धड़कन
आकर ट्राम के अन्दर पिछले डब्बे में
बैठ गए हैं इधर-उधर तुमसे सट कर
आपस में उनकी बतकही
सच-सच बतलाओ
घिन तो नहीं आती है?
जी तो नहीं कढता है?

दूध-सा धुला सादा लिबास है तुम्हारा
निकले हो शायद चौरंगी की हवा खाने
बैठना है पंखे के नीचे , अगले डिब्बे में
ये तो बस इसी तरह
लगाएंगे ठहाके, सुरती फाँकेंगे
भरे मुँह बातें करेंगे
अपने देस-कोस की
सच-सच बतलाओ
अखरती तो नहीं इनकी सोहबत ?
घिन तो नहीं आती है?
जी तो नहीं कढता है?

 

-नागार्जुन

साभार-अपने खेत में

 

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