प्रत्येक नगर प्रत्येक मोहल्ले में और प्रत्येक गाँव में एक पुस्तकालय होने की आवश्यकता है। - (राजा) कीर्त्यानंद सिंह।
नारी के उद्गार (काव्य)    Print this  
Author:सुदर्शन | Sudershan

'माँ' जब मुझको कहा पुरुष ने, तु्च्छ हो गये देव सभी।
इतना आदर, इतनी महिमा, इतनी श्रद्धा कहाँ कमी?
उमड़ा स्नेह-सिन्धु अन्तर में, डूब गयी आसक्ति अपार। 
देह, गेह, अपमान, क्लेश, छि:! विजयी मेरा शाश्वत प्यार॥

'बहिन!' पुरुष ने मुझे पुकारा, कितनी ममता! कितना नेह!
'मेरा भैया' पुलकित अन्तर, एक प्राण हम, हों दो देह।
कमलनयन अंगार उगलते हैं, यदि लक्षित हो अपमान।
दीर्ध भुजाओं में भाई की है रक्षित मेरा सम्मान॥

'बेटी' कहकर मुझे पुरुष ने दिया स्नेह, अन्तर-सर्वस्व।
मेरा सुख, मेरी सुविधा की चिन्ता-उसके सब सुख ह्रस्व॥
अपने को भी विक्रय करके मुझे देख पायें निर्बाध।
मेरे पूज्य पिताकी होती एकमात्र यह जीवन-साध॥

'प्रिये!' पुरुष अर्धांग दे चुका, लेकर के हाथों में हाथ।
यहीं नहीं-उस सर्वेश्वर के निकट हमारा शाश्वत साथ॥
तन-मन-जीवन एक हो गये, मेरा घर-उसका संसार।
दोनों ही उत्सर्ग परस्पर, दोनों पर दोनों का भार॥

'पण्या!' आज दस्यु कहता है! पुरुष हो गया हाय पिशाच! 
मैं अरक्षिता, दलिता, तप्ता, नंगा पाशवता का नाच!!
धर्म और लज्जा लुटती है! मैं अबला हूँ कातर, दीन!
पुत्र! पिता!  भाई ! स्वामी! सब तुम क्या इतने पौरुषहीन?

-सुदर्शन

Previous Page  |  Index Page  |   Next Page
 
Post Comment
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश