'माँ' जय मुझको कहा पुरुष ने, तु्च्छ हो गये देव सभी । इतना आदर, इतनी महिमा, इतनी श्रद्धा कहाँ कमी? उमड़ा स्नेह-सिन्धु अन्तर में, डूब गयी आसक्ति अपार । देह, गेह, अपमान, क्लेश, छि:! विजयी मेरा शाश्वत प्यार ।।
'बहिन !' पुरुष ने मुझे पुकारा, कितनी ममता ! कितना नेह ! 'मेरा भैया' पुलकित अन्तर, एक प्राण हम, हों दो देह । कमलनयन अंगार उगलते हैं, यदि लक्षित हो अपमान । दीर्ध भुजाओं में भाई की है रक्षित मेरा सम्मान ।।
'बेटी' कहकर मुझे पुरुष ने दिया स्नेह, अन्तर-सर्वस्व । मेरा सुख, मेरी सुविधा की चिन्ता-उसके सब सुख ह्रस्व ।। अपने को भी विक्रय करके मुझे देख पायें निर्बाध । मेरे पूज्य पिताकी होती एकमात्र यह जीवन-साध ।।
'प्रिये !' पुरुष अर्धांग दे चुका, लेकर के हाथों में हाथ । यहीं नहीं-उस सर्वेश्वर के निकट हमारा शाश्वत साथ ।। तन-मन-जीवन एक हो गये, मेरा घर-उसका संसार । दोनों ही उत्सर्ग परस्पर, दोनों पर दोनों का मार ।।
'पण्या!' आज दस्यु कहता है ! पुरुष हो गया हाय पिशाच ! मैं अरक्षिता, दलिता, तप्ता, नंगा पाशवता का नाच !! धर्म और लज्जा लुटती है ! मैं अबला हूँ कातर, दीन ! पुत्र ! पिता ! भाई ! स्वामी ! सब तुम क्या इसने पौरुषहीन?
-सुदर्शन
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