कड़वा सत्य | कविता (काव्य)    Print this  
Author:विष्णु प्रभाकर | Vishnu Prabhakar

एक लंबी मेज
दूसरी लंबी मेज
तीसरी लंबी मेज
दीवारों से सटी पारदर्शी शीशेवाली अलमारियाँ
मेजों के दोनों ओर बैठे हैं व्यक्ति
पुरुष-स्त्रियाँ
युवक-युवतियाँ
बूढ़े-बूढ़ियाँ
सब प्रसन्न हैं

कम-से-कम अभिनय उनका इंगित करता है यही
पर मैं चिंतित हूँ
देखकर उस वृद्धा को
जो कभी प्रतिमा भी लावण्य की
जो कभी तड़प थी पूर्व राग की
क्या ये सब युवतियाँ
जो जीवन उँड़ेल रही हैं
युवक हृदयों में
क्या ये सब भी
बूढ़ी हो जाएँगी
देखता हूँ पारदर्शी शीशे में
इस इंद्रजाल को
सोचता हूँ-
सत्य सचमुच कड़वा होता है।

- विष्णु प्रभाकर

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