अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
याचना | कविता (काव्य)    Print this  
Author:कन्हैयालाल नंदन (Kanhaiya Lal Nandan )

मैंने पहाड़ से माँगा :
अपनी स्थिरता का थोड़ा-सा अंश मुझे दे दो
पहाड़ का मन न डोला ।

मैंने झरने से कहा :
दे दो थोड़ी-सी अपनी गति मुझे भी
झरना अपने नाद में मस्त रहा
कुछ न बोला।

मैंने दूब से माँगी थोड़ी-सी पवित्रता व
ह अपने दलों में मुस्कराती रही।
मैंने फूलों से माँगी ज़रा-सी कोमलता
और चिड़िया से
उसका चुटकी भर आकाश
लहरों से थोड़ी-सी चंचल तरलता
धूप से एक टुकड़ा उजास ।

ओक में भरने को खड़ा रहा देर तक
कहीं से कुछ न पाया
याचना अकारथ जाते देख
आहत मन लौट आया
तरस खाया हवा ने
हौले से कान में बोली :
नाहक हो उदास
अपने लिए माँगने से बाहर निकलो
निश्छल, सहज हो जाओ
यह सब प्रचुर है तुम्हारे पास ।
माँगने से कुछ नहीं मिलेगा
देने से पाओगे,
जितना ही हरियाली बाँटोगे
अंदर हरे हो जाओगे।

-कन्हैयालाल नंदन

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