जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।
कोरोना पर दोहे  (काव्य)    Print this  
Author:डॉ रामनिवास मानव | Dr Ramniwas Manav

गली-मुहल्ले चुप सभी, घर-दरवाजे बन्द।
कोरोना का भूत ही, घुम रहा स्वच्छन्द॥

लावारिस लाशें कहीं और कहीं ताबूत।
भीषण महाविनाश के, बिखरे पड़े सबूत॥

नेता, नायक, आमजन, सेना या सरकार।
एक विषाणु के समक्ष, सब कितने लाचार॥

महानगर या शहर हो, कस्बा हो या गांव।
कोरोना के कोप से, ठिठके सबके पांव॥

मरघट-सा खामोश है, कोरोना का दौर।
केवल सुनता विश्व में, सन्नाटों का शौर॥

चीख-चीखकर आंकड़े, करते यही बखान।
मानव के अस्तित्व पर, भारी पड़ा वुहान ॥

साधन कम, खतरे बहुत, कठिन बड़े हालात।
देवदूत फिर भी जुटे, सेवा में दिन-रात ॥

इनके सिर पर चोट है, पत्थर उनके हाथ।
यह भी एक जमात है, वह भी एक जमात॥

आस-पास सारे रहें, लगते फिर भी दूर।
पल में घर-परिवार के, बदल गये दस्तूर॥

गई कहां वह भावना, गया कहां वह नेह।
अपने ही करने लगे, अपनों पर सन्देह ॥

घर के भीतर भूख है, घर के बाहर मौत।
करे प्रताड़ित जिन्दगी, बनकर कुल्टा सौत॥

-डॉ. रामनिवास 'मानव'
 भारत

 

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